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________________ जैन कथा कोष १६६ लीं। दस प्रतिमाओं की साधना पूर्ण कर ली । ग्यारहवीं प्रतिमा के १६ दिन व्यतीत हो गये, तब उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । अवधिज्ञान से उसने देखा — उसको अग्नि का उपसर्ग होने वाला है । उसी उपसर्ग में उसकी मृत्यु होगी। ज्ञान से यों जानकर जुट्ठल अनशन में समाधिस्थ बैठ गया है। इतने में उसकी पत्नियों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति न होते देखकर पौषधशाला में अग्नि लगा दी । पाँच सौ वर्ष के आयुष्य में तीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन किया। दो महीने के अनशनपवूक जुट्ठल श्रावक अग्नि के उस उपसर्ग से मरकर ईशान देवलोक में देव हुआ । वहाँ से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष जायेगा । आवश्यक कथा ६४. ढंढण मुनि 'ढंढणकुमार' श्रीकृष्ण की 'ढंढणा' नामक रानी के पुत्र थे । वे भगवान् नेमिनाथ के उपदेश से प्रभावित होकर संसार से विरक्त हो उठे और पिताश्री की आज्ञा लेकर साधु बने । परन्तु पता नहीं कैसा गहन अन्तराय कर्म का बन्धन था कि उन्हें आहार-पानी की प्राप्ति नहीं होती थी । किसी दूसरे साधु के साथ चले जाते तो उन्हें भी नहीं मिलता था । एक बार ढंढणं मुनि ने अभिग्रह कर लिया कि मुझे मेरी लब्धि का आहार मिलेगा तो आहार लूँगा अन्यथा नहीं । भिक्षा के लिए प्रतिदिन जाते, पर आहार का सुयोग नहीं मिलता । छः माह बीत गये । शरीर दुर्बल हो गया । एक बार ढंढण मुनि भिक्षार्थ गये हुए थे। श्रीकृष्ण ने भगवान् ‘नेमिनाथ' से प्रश्न किया—भगवन् ! आपके १८००० साधुओं में कौन-सा मुनि साधना में सर्वश्रेष्ठ है? भगवान नेमिनाथ ने ढंढण मुनि का नाम बताया और उनकी समता की सराहना की तथा कहा कि उसने (ढंढण मुनि ने) अलाभ परीषह को जीत लिया । श्रीकृष्ण उनके दर्शन करने को उत्सुक हो उठे । भिक्षार्थ भ्रमण करते ढंढण मुनि के दर्शन किये, पुनः पुनः स्तवना की । महाराज श्रीकृष्ण को यों स्तवना करते पास वाले मकान में बैठे एक कंदोई ने देखा और सोचा— हो न हो ये पहुँचे हुए साधक हैं, जिनकी श्रीहरि जैसे सम्राट् भी यों स्तवना करते हैं। मुझे इन्हें भोजन देना चाहिए । यों विचारकर
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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