SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० जैन कथा कोष भक्ति -भाव से अपने घर ले गया। - - मुनि ने पूछा-तू जानता है मैं किसका शिष्य हूँ? किसका पुत्र हूँ? कंदोई ने कहा- मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि आप साधु हैं। - मुनि ने अपनी लब्धि की ही जानकर भिक्षा ले ली। भिक्षा लेकर मुनि भगवान् के पास आये। भगवान् ने रहस्योद्घाटन करते हुए फरमाया-'भद्र ! यह भिक्षा तुम्हारी लब्धि की नहीं, अपितु श्रीकृष्ण की लब्धि की है। अत: यह भिक्षा तेरे अभिग्रह के अनुसार तो तेरे लिए अग्राह्य है।' ___ ढंढण मुनि फिर भी समाधिस्थ रहे । प्रभु से पूछा-'प्रभो ! मैंने ऐसे कौन से कर्मों का बंधन किया था, जिससे मेरे अन्तराय का उदय रहता है?' भगवान् ने फरमाया "तू पूर्वजन्म में मगधदेश के पूर्वार्ध' नगर में 'पाराशर' नामक एक सुखी और सम्पन्न किसान था। खेत में छ: सौ हल चलते थे। एक बार ऐसा प्रसंग आया-छ: सौ हल खेत में चल रहे थे। भोजन के समय सबके लिए भोजन आया । परन्तु तू लालच में फंसकर थोड़ा और चलाओ—थोड़ा और' कहकर हल चलवाता रहा । बारह सौ बैल और छ: सौ हल चलाने वाले व्यक्ति भूखप्यास से परेशान थे। तू उन सबके लिए अन्तरायदाता (बाधा) बना । उस कार्य से निकाचित कर्मों का बन्ध हुआ। वे यहाँ उदयावस्था में आये हैं, अत: तुम्हें आहार नहीं मिलता है।" अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर ढंढण मुनि और अधिक संवेग-रस में तल्लीन हो उठे। उन लाये हुए मोदकों का व्युत्सर्ग करने प्रासुक भूमि में गये। एक-एक करके मोदकों को चूरने लगे। मोदकों के साथ-साथ भावना-बल से अपने कर्मों का चूर्ण करके केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष में जा पहुँचे। -भरतेश्वरवृत्ति -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ८ ६५. तामली तापस 'तामली' ताम्रलिप्ति नगरी में रहने वाला एक ऋद्धि-सम्पन्न गाथापति था। भरा-पूरा परिवार, नगर में प्रतिष्ठा और सम्मान—कुल मिलाकर वह अपना
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy