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________________ १४४ जैन कथा कोष प्रयत्न किया, जब वह ही नहीं रही तो चिलातीपुत्र का पीछा करने से अब क्या लाभ था? वे घोर निराशा में डूब गये। आगे बढ़ने से उनके पाँवों ने जवाब दे दिया। सब-के-सब वहीं एक वृक्ष के नीचे बैठ गये और वापस घर लौटने का विचार करने लगे। इधर भागते-भागते चिलातीपुत्र भी बहुत थक गया था। चलते-चलते उसके मन में अनेक प्रकार के विचार आने लगे—यह भी कोई जीवन है? हर वक्त भागना, आठों पहर का भय, एक क्षण को शांति नहीं; मानसिक कष्ट और पीड़ा ही में जीवन गुजर रहा है। जो दूसरों को दु:ख देता है, उसे भी बदले में दुःख ही मिलता है। मेरा यह चौर्य-कर्म निन्दनीय है, हर समय चित्त में उद्विग्नता और अशान्ति रहती है। ___ इन्हीं विचारों में खोया वह आगे बढ़ता चला जा रहा था। एकाएक उसकी दृष्टि एक मुनि पर पड़ी। मुनिश्री उस बीहड़ और भयानक जंगल में एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उनके मुखमण्डल पर अनुपम शांति और अद्भुत तप:तेज दमक रहा था। ___ चिलातीपुत्र ने मुनि को देखकर मन-ही-मन सोचा–वास्तविक जीवन तो इन्हीं का है—कितनी शान्ति है ! इनसे शान्ति पाने का उपाय जानना चाहिए। ___ वह मुनिश्री के पास आया और उनसे शान्ति पाने का उपाय पूछा | मुनिश्री ने उसे देखा तो जान लिया कि पापकर्म में इस समय लिप्त होते हुए भी इस पुरुष में भव्य आत्मा का निवास है। उन्होंने संक्षेप में कहा—'उपशम, विवेक और संवर को स्वीकार करो। इससे तुम्हें शांति प्राप्त होगी।' चिलातीपुत्र एकान्त में जाकर बैठ गया और मुनिश्री द्वारा बताये गये उपशम, विवेक और संवर–इन तीनों पदों पर चिन्तन करने लगा। चिन्तन की धारा में बहते हुए उसने समझ लिया कि उपशम का अभिप्राय क्रोध की अग्नि को शांत करना है, विवेक का अर्थ परिग्रह और पर-वस्तुओं का त्याग है तथा संवर का आशय मन और इन्द्रियों का निग्रह करना है। इन्हीं तीनों से अपनी आत्मा को भावित करना चाहिए, यही शांति का राजमार्ग है। बस, वह इन तीनों पदों के चिन्तन में डूब गया। उसके पास ही रक्तरंजित तलवार और सुषमा का कटा सिर पड़ा था। रक्त की गंध से वज्रमुखी चींटियाँ आकर्षित हो गई। उसके शरीर पर चढ़ने लगीं, उसे नोंचने लगीं। उन चीटियों
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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