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जैन कथा कोष १४५ ने उसके शरीर को छलनी कर दिया; लेकिन उसने इन पर क्रोध नहीं किया अपितु उपशम, विवेक और संवर के चिंतन में ही डूबा रहा। अन्त में समभावपूर्वक प्राण त्यागकर वह देवलोक में उत्पन्न हुआ।
-ज्ञातासूत्र, अध्ययन १८ आख्यानक मणिकोष, १२।६७ --भत्तपइन्ना प्रकीर्णक, गाथा ८८ -उपदेश प्रासाद, भाग १।१०
-उपदेशमाला
७६. चित्त-ब्रह्मदत्त 'वाराणसी' नगरी के महाराज का नाम था 'शंख'। उसके प्रधान का नाम था नमुचि । नमुचि अनेक कलाओं में पारंगत था, परन्तु था, आचारहीन । महाराज शंख की पटरानी से भी नमुचि का अनुचित संबंध हो गया। एक दिन नमुचि को रंगे हाथों महाराज ने पकड़ लिया। कुपित होना स्वाभाविक ही था । तत्क्षण भूतदत्त नाम के चाण्डाल को बुलाकर उसके सिर को काटने का आदेश दे दिया। 'भूतदत्त' उसे मारने के लिए ले चला। ___ 'नमुचि' ने जीवन-दान देने की चाण्डाल से याचना की। चाण्डाल ने कहा-'आप यदि मेरे पुत्रों को संगीत का अभ्यास करा दें तो मैं आपको जीवित छोड़ सकता हूँ।' ___ उन दिनों चाण्डालों को विद्या-दान देना महापाप समझा जाता था। फिर भी जीवित रहने के लिए 'नमुचि' ने यह बात स्वीकार कर ली।
चाण्डाल ने अपने यहाँ भौंयरे (तलघर) में उसे गुप्त रख दिया। वहाँ रहकर नमुचि ने भूतदत्त चाण्डाल के पुत्र चित्त और संभूति को संगीत विद्या में पारंगत बना दिया।
चाण्डाल की पत्नी भौंयरे में नमुचि के पास भोजन आदि के लिए आतीजाती थी। धीरे-धीरे सम्पर्क बढ़ा। नमुचि ने उसको अपने प्रेमपाश में बाँध लिया। इनके इस गुप्त प्रेम का जब भूतदत्त को पता लगा तब वह 'नमुचि' को मारने की ठान बैठा।
अपने पिता के इस विचार का उसके पुत्रों को पता लगा। उन्होंने 'नमुचि' को अपना विद्यागुरु मानकर उसकी रक्षा करनी चाही। 'नमुचि' को सारा गुप्त