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जैन कथा कोष १३३
करें। व्यर्थ का बखेड़ा होगा, इसलिए कहीं और चलें तो ठीक रहेगा ।' आचार्यश्री बोले – तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन मुझे तो कम दिखाई देता है। तुम मार्ग शोध आओ, तब चले चलेंगे।
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त्र - दीक्षित साधु शीघ्र ही मार्ग शोध आया। तब तक संध्याकाल हो चुका था । शिष्य ने गुरु को अपने कंधे पर बैठाया और चल दिया ।
वन का मार्ग ऊबड़-खाबड़ तो था ही, रात भी हो चुकी थी, अतः अँधेरे में शिष्य को ठोकर लग जाती । इससे गुरुदेव को तकलीफ होती । वे क्रोधी तो थे ही, शिष्य की भर्त्सना करते, बुरा-भला कहते और कभी-कभी डंडे से पीट भी देते। लेकिन शिष्य अत्यन्त विनयी था । वह गुरु के प्रति मन में तनिक भी रोष न लाता, वरन् अपनी ही आलोचना करता कि मैं गुरु की आशातना कर रहा हूँ, इन्हें कष्ट दे रहा हूँ। वह गुरु को परम उपकारी मानता कि इन्हीं की कृपा से मुझे रत्नत्रय की आराधना का अवसर मिला है।
इस प्रकार शिष्य शुभध्यान से शुक्लध्यान में पहुँच गया और उसकी आत्मा में छिपा कैवल्य प्रकट हो गया। अब उसके लिए सर्वत्र प्रकाश-ही-प्रकाश था । केवलज्ञान की ज्योति से उसकी आत्मा जगमगा उठी थी ।
अब वह सही मार्ग पर चल रहा था, उसे कोई ठोकर नहीं लग रही थी । गुरुदेव को भी कोई कष्ट नहीं हो रहा था ।
सुबह जब सूर्य उदय हुआ तो गुरु ने देखा कि शिष्य के सिर से खून बह रहा है। उन्होंने अपने क्रोध को धिक्कारा और शिष्य की विनम्रता की मन-हीमन प्रशंसा की, फिर पूछा—' वत्स ! पहले तो तुझे ठोकरें लगती रहीं, उसके बाद नहीं लगीं। अंधकार में भी तू सरलतापूर्वक चलता रहा। क्या कारण है?" शिष्य ने विनीत स्वर में बताया- - गुरुदेव ! आपकी कृपा से मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई है।
यह जानते ही चण्डरुद्राचार्य का पश्चाताप और गहरा हो गया। वे अपनी आत्मालोचना करने लगे । आत्मालोचना से आगे बढ़कर आत्म-ध्यान में डूबे और उन्हें भी कैवल्य की प्राप्ति हो गई ।
सच है, विनीत शिष्य अपने महाक्रोधी गुरु के लिए भी मुक्ति का कारण है 1
बन सकता
-- उत्तराध्ययन, अध्ययन १, वृत्ति — उपदेश प्रासाद, भाग ४