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________________ १३२ जैन कथा कोष ७४. चण्डरुद्राचार्य अवंती नगरी के उद्यान में चण्डरुद्र नामक आचार्य अपने शिष्य.परिवार के साथ विराजमान थे। उनका स्वभाव कुछ क्रोधी था। अपने शिष्यों के छोटे.छोटे क्रिया, दोषों पर भी क्रोधित हो जाते थे। एक बार आचार्यदेव ने सोचा कि यह बार-बार क्रोध करना मेरे लिए उचित नहीं है। क्रोध से तो मुझे भी दुर्गति में जाना पड़ेगा; और यह भी दिखाई देता है कि ये शिष्यगण क्रिया-दोष लगाये बिना मानेंगे नहीं। इसलिए मुझे एकांत स्थान में साधना करनी चाहिए, जिससे मैं शांत रह सकूँ। यह सोचकर चण्डरुद्राचार्य अपने शिष्यों से दूर एकान्त में ध्यान करने लगे। उसी समय उज्जयिनी नगरी के किसी सेठ का पुत्र अपने मित्रों के साथ वहाँ आया। श्रेष्ठि-पुत्र का हाल ही में विवाह हुआ था। अभी उसके हाथ में विवाह का चिह्न कंगन भी बँधा हुआ था। उसके मित्रों ने साधुओं से कहा'हे साधुओ ! यह हमारा मित्र संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेना चाहता है।' साधुओं ने समझा कि ये लोग हँसी कर रहे हैं। परिस्थिति भी ऐसी ही थी। नव-विवाहित युवक दीक्षा लेने को तैयार होगा, इस बात पर सहसा विश्वास हो भी नहीं सकता। साधुओं ने उन्हें अपने गुरुदेव चण्डरुद्राचार्य के पास भेज दिया। आचार्यदेव के पास जाकर भी मित्रों ने यही कहा। आचार्य ने कहा'यदि इस युवक की वास्तविक इच्छा दीक्षा लेने की है तो केशलोंच करे, मैं दीक्षा दे दूंगा।' वह युवक तैयार हो गया। गुरुदेव ने स्वयं अपने हाथों से उसका केशलोंच किया और दीक्षा दे दी। दीक्षित होकर उस युवक ने सोचा—मैंने जिनेन्द्र भगवान् का वेश अपनाया है, अब मुझे वापस लौटना उचित नहीं। यह सोचकर उसने अपने मित्रों से कहा—'अब तुम लोग वापस घर जाओ। मैं तो संसार त्याग चुका। अब मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा।' यह सुनकर उसके मित्र वापस नगरी को चले आये और वह वहीं गुरुदेव के पास रह गया। ___ उनके जाने के बाद उस नव-दीक्षित साधु ने गुरुदेव से कहा-'गुरुदेव ! हो सकता है मेरे स्वजन-संबंधी आयें और मुझे संयम से च्युत करने का प्रयत्न
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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