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________________ जैन कथा कोष १२१ के दुःख का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। किन्तु 'अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।' संयोग की बात थी कि 'धर्मघोष' मुनि उसी दिन वहाँ पधारे । राजा-रानी तथा सहस्रों नागरिक मन-ही-मन दु:ख, ग्लानि, घृणा समेटे मुनि की सेवा में उपस्थित हुए। राजा ने अनुताप करते हुए मुनि से यही प्रश्न किया—'भगवन् ! मेरे से ऐसा जघन्यतम पाप क्यों हुआ?' उत्तर देते हुए 'धर्मघोष' मुनि ने कहा-राजन् ! खंधक से अपने पूर्वभव में एक महापाप हुआ था। खंधक उस समय भी राजकुमार था। उसने उस समय एक काचर छीला था। छिलका उतारकर वह बहुत प्रसन्न हुआ कि बिना कहीं तोडे मैंने पूरे काचर का छिलका एक साथ उतार दिया। उसी प्रसन्नता से कुमार के गाढ़ कर्मों का बन्धन हुआ। उसी घोर पाप-बन्ध के परिणामस्वरूप यहाँ उसकी चमड़ी उतारी गई। तू भी उसी काचर में उस समय एक बीज था। तूने अपना बदला यहाँ ले लिया। सुनने वाले कर्मों के अनुबन्ध पर विस्मित थे। -आवश्यक कथा ६८. गर्गाचार्य गर्गाचार्य एक ऋद्धिसम्पन्न उत्कृष्टाचारी आचार्य थे। उनकी शिष्य-परम्परा में पाँच सौ शिष्य थे। परन्तु संयोग की बात थी कि सभी शिष्य अविनीत, उच्छृखल और असमाधिकारक थे। ____ एक बार ऐसा प्रसंग आया कि गर्गाचार्य अस्वस्थ हो गये। किसी भी कार्य के लिए किसी शिष्य को कहा जाता तो सब टालमटोल कर देते। कोई कहता—वहाँ कोई मिलता ही नहीं है। कोई कहता-आप मुझे ही कहते हैं, इतने और बैठे हैं, इनसे तो आप कुछ कहते ही नहीं हैं। यों गर्गाचार्य की असमाधि प्रतिदिन बढ़ने लगी। गर्गाचार्य ने सोचा-ऐसे कुशिष्यों से क्या भला होने वाला है? साहस करके सभी शिष्यों का परित्याग करके एकल विहारी बन गये। पूर्णतः समाधिस्थ होकर क्षपकश्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बने। -उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति, अध्ययन २६
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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