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________________ ११२ जैन कथा कोष पति और पुत्र दोनों का एक साथ वियोग सहन करने में सक्षम न हो सका । उसने अपने हृदय को बहुत दृढ़ करने का प्रयास किया, लेकिन सफल न हो सकी। आखिर अपने पुत्र भरत को दीक्षा ग्रहण करने से रोकने का एक उपाय सोचा। उसने राजा दशरथ से वर माँगा – ' भरत को अयोध्या का राजतिलक कर दिया जाये ।' राजा दशरथ को इसमें कोई ऐतराज न था । उन्हें राम और भरत दोनों ही समान रूप से प्रिय थे। उन्होंने भरत का राजतिलक स्वीकार कर लिया । लेकिन भरत ने इस बात का विरोध कर दिया। उसने स्पष्ट कह दिया- 'मैं बड़े भाई राम के रहते राजसिंहासन पर किसी भी दशा में न बैठूंगा।' बहुत समझाने पर भी भरत अपने निर्णय से न डिगे । अब समस्या टेढ़ी हो गई। राजा दशरथ किसे राजसिंहासन पर बैठाकर दीक्षा ग्रहण करें? वचनबद्धता के कारण भरत का राजतिलक आवश्यक था और भरत किसी भी दशा में राजी नहीं हो रहे थे । इस समस्या का उपाय सोचा श्रीराम ने । उन्होंने विचार किया— यदि मैं वन चला जाऊँगा तो भरत सिंहासन को सँभाल ही लेगा। उन्होंने वन जाने का निर्णय कर लिया। उनके इस निर्णय का अनुसरण उनकी धर्मपत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण ने भी किया। तीनों ही अयोध्या को छोड़कर वन की ओर चल दिये। लेकिन श्रीराम के इस निर्णय का कैकेयी के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा । उसी को राम-लक्ष्मण-सीता के वन-गमन का कारण माना जाने लगा। राम-वनगमन का कलंक उसके माथे पर लग गया। लोक में यह प्रचलित हो गया कि उसी ने राम को वनवास दिलाया है। इस घटना से कैकेयी को बहुत पश्चात्ताप हुआ । उसने यह कलंक धोने का बहुत प्रयास किया । राम को मनाकर वापस लाने के लिए वह चित्रकूट भी गई। लेकिन राम वापस नहीं आये। कैकेयी का कलंक नहीं धुल सका । वह जीवन भर पश्चात्ताप करती रही । जब श्रीराम लंका विजय करके वापस अयोध्या लौट आये, तब एक बार अयोध्या में केवली मुनि कुलभूषण देशभूषण पधारे। उनकी देशना से भरत और कैकेयी दोनों प्रतिबुद्ध हो गये । भरत और कैकेयी दोनों ने संयम ग्रहण कर लिया ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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