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________________ जैन कथा कोष १११ श्रावक जिनभद्र ने विनय की— 'भगवन् ! रात्रि मेरे उपासना - गृह में बितायें तो उचित रहेगा। इस आधी रात के समय गमन उचित नहीं है । ' मुनिश्री उपासना - गृह में ही ठहर गये । चिन्तन चला — मोदकों के चक्कर मैं सब कुछ भूल गया। साधु मर्यादा में दोष लगाया। मुझे आत्म-साधना और आत्म-शुद्धि करनी चाहिए थी, मैं रसगृद्धता में कहाँ फँस गया? चिन्तन ऊर्ध्वमुखी हुआ और सुव्रत मुनि को कैवल्य प्राप्त हो गया । सभी आत्मदर्शी मुनि सुव्रत और विवेकी श्रावक जिनभद्र की प्रशंसा करने लगे । ६२. कैकेयी कैकेयी उत्तरापथ के कौतुकमंगलनगर के राजा शुभमति और रानी पृथ्वी श्री की पुत्री थी । इसने स्वयंवर मंडप में उपस्थित सभी राजाओं को छोड़कर राजा दशरथ के गले में वरमाला डाल दी। राजा दशरथ उस समय साधारण वेशभूषा में थे। अतः अन्य राजाओं ने इन्हें सामान्य पुरुष ही समझा। इस कारण वे कैकेयी द्वारा सामान्य पुरुष के गले में वरमाला डालने को अपना अपमान समझ बैठे। वे युद्ध के लिए तैयार हो गये। उनकी योजना थी— दशरथ से जबरदस्ती कैकेयी को छीन ले जाने की । दूसरे दिन नगर के बाहर खुले मैदान में युद्ध की योजना बनी। एक ओर हजारों राजा थे और दूसरी ओर अकेले दशरथ । कैकेयी ने उनके सारथी का भार सँभाला। कैकेयी के कुशल रथ-संचालन के कारण दशरथ ने उन सबको रणभूमि से भागने पर विवश कर दिया। दशरथ विजयी हुए । इस विजय में कैकेयी के अनुपम सहयोग के कारण राजा दशरथ ने उसे एक वर माँगने को कहा। कैकेयी ने कहा- ' अभी इस वर को अपने पास धरोहर रूप में रहने दीजिए। जब समय आयेगा तब माँग लूंगी । ' - काफी समय बाद जब चतुर्ज्ञानी महामुनि सत्यभूति संघ सहित अयोध्या में पधारे तो उनकी देशना से राजा दशरथ को वैराग्य हो गया । उन्होंने राम को अयोध्या का राज्य देकर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं। कैकेयी बहुत प्रसन्न हुई । किन्तु विशेष बात यह हुई कि दशरथ के साथ ही कैकेयी के पुत्र भरत ने भी दीक्षा लेने की हठ पकड़ ली। कैकेयी का नारी सहज कोमल मातृहृदय
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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