SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ जैन कथा कोष ६०. केशी स्वामी केशी स्वामी ( केशीकुमार श्रमण ) भगवान् 'पार्श्वनाथ' की परम्परा के एक महान् तेजस्वी आचार्य थे। तीन ज्ञान के धारक, चारित्र - सम्पन्न और महान् यशस्वी साधक थे। वे अपने शिष्यों सहित एक बार 'श्रावस्ती' नगरी के 'तिंदुकवन' में आकर विराजमान हुए। उन्हीं दिनों गणधर 'गौतम', जो भगवान् महावीर की परम्परा के सफल संवाहक थे, भी अपनी शिष्य-मंडली सहित उसी 'श्रावस्ती' नगरी के 'कोष्ठक' उद्यान में विराजमान थे। जब दोनों के शिष्यों ने भिक्षार्थ शहर में घूमते एक-दूसरे को देखा, तब उनके वेश की विभिन्नता देखकर शंकाशील होना सहज था । सबने अपने - अपने अधिशास्ता के सामने अपनी शंकाएं रखीं। शिष्यों को आश्वस्त करने हेतु गौतम स्वामी केशी स्वामी के कुल को ज्येष्ठ गिनते हुए उनके पास तिन्दुकवन में आये । केशी स्वामी ने भी आसन प्रदान करके उनका समादर किया। वहाँ विराजमान दोनों ही चन्द्र और सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। उस समय अनेक कौतुहलप्रिय, जिज्ञासु तथा तमाशबीन लोग वहाँ इसलिए इकट्ठे हो गये कि देखें क्या होता है? केशी स्वामी ने अपने शिष्यों की शंकाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा—' गौतम ! पार्श्व प्रभु ने चार महाव्रतरूप धर्म तथा भगवान् महावीर ने पाँच महाव्रतरूप धर्म कहा, यह भेद क्यों ? ' गौतम ने समाधान देते हुए कहा- ' -'महात्मन् ! जहाँ प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल और जड़ तथा अन्तिम तीर्थंकर के मुनि वक्र और जड़ होते हैं, वहाँ बीच वाले बाईस तीर्थंकर के साधु सरल और प्रज्ञ (बुद्धिमान) होते हैं। इसलिए प्रभु ने धर्म के दो रूप किये। आशय यह है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु धर्म को जल्दी से समझ नहीं सकते, पर समझने के बाद उसकी आराधना अच्छी तरह से कर सकते हैं तथा अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण धर्म की व्याख्या समझ तो जल्दी से लेते हैं, पर पालन करने में वे शिथिल हो जाते हैं। इसलिए उनके लिए पाँच महाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा की तथा बीच वाले बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए समझना और पालना दोनों ही आसान है, इसलिए चार महाव्रतरूप धर्म की प्ररूपणा की । गौतम स्वामी के उत्तर से सबको समाधान मिला और सभी आश्वस्त हुए। केशी स्वामी ने दूसरा प्रश्न किया- 'महानुभाव ! ये वेश में विविधता क्यों, जब एक ही लक्ष्य को लेकर दोनों चल रहे हैं ? ' जहां पार्श्व प्रभु ने कीमती
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy