________________
सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण हैं।
श्रुतावतार नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि भूतबलि ने पुष्पदन्त विरचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खंडों के छः हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खंड की तीस हजार सूत्र ग्रन्थों के रूप में रचना की।
प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पुष्पदन्ताचार्य ने षटखण्डागम की रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणा के सूत्रों की रचना की थी और शेष भाग को आचार्य भूतबलि ने समाप्त किया था।
ग्रन्थ का महत्त्व • षट्खण्डागम अत्यन्त प्राचीन होने से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
श्रुतरक्षा के भाव (महावीर की दिव्य देशना को जिनवाणी में सुरक्षित रखने के भाव) से इस ग्रन्थ की रचना की गयी है।
द्वादशांग-वाणी (जिनवाणी) के साथ षट्खण्डागम का साक्षात् सम्बन्ध है। • जैन शास्त्रों में सबसे महान एवं सबसे प्राचीन (कषायपाहुड के बाद
का) ग्रन्थ है। • ग्रन्थ में वर्णित विषय बहुत ही गूढ़, गम्भीर एवं महत्त्वपूर्ण है। • कर्मसिद्धान्त, जीव के भाव आदि विषयों का बहुत सूक्ष्म वर्णन है।
ग्रन्थ का मुख्य विषय मंगलाचरण : ग्रन्थ के प्रारम्भ में पञ्चनमस्कार मन्त्र द्वारा पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। आचार्य ने तीन खंड के बाद पुनः मंगलाचरण किया है।
पहला खंड जीवस्थान षटखण्डागम में पहला खंड जीवस्थान (जीवट्ठाण) है। इसमें जीव के गुण-धर्म
और नाना अवस्थाओं का वर्णन आठ प्ररूपणाओं (अधिकारों) से किया है। इसमें जीव के गुण-धर्म और अवस्थाओं को भी द्रव्य के सामान्य और विशेष प्रकार से बाँटा है।
किसी भी वस्तु को चार प्रकार से देखते हैंद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इन सबके सामान्य और विशेष दो-दो प्रकार हैं। द्रव्य की आठ प्ररूपणाएँ : सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर,
षट्खण्डागम :: 79