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________________ रत्नत्रय रौद्रध्यान रूपस्थ ध्यान रूपातीत ध्यान लक्षणग्रन्थ लेश्या व्यय व्यवहारनय वस्तु स्वरूप विचय विपर्यय विभावर्याय विमोह वीतरागत वीतरागी वेदक सम्यक्त्व व्रत लेना श्लाका पुरुष शिक्षा शुक्ल ध्यान सकल संयम सम्प्रदाय सम्यक्त्व सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान समिति : मोक्ष प्राप्त करने के लिए धर्म के तीन विशेष रत्नसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र । : निर्दय, क्रूर परिणामों में लगा हुआ मन । : किसी मूर्ति या आकार का ध्यान करना। : किसी आकार से रहित ध्यान करना । : ऐसे ग्रन्थ जिनमें परिभाषाएँ होती हैं । : कषायों के स्तर । कषायों के शुभ और अशुभ वर्गीकरण । : द्रव्य में पूर्व पर्याय का नाश होना । : वस्तु के अशुद्ध स्वरूप का ज्ञान । : द्रव्य, पदार्थ या तत्त्व का सही-सही स्वभाव । : मीमांसा करना, विचार करना । : विपरीत ज्ञान । : अशुद्ध अवस्था । : ज्ञान नहीं होना । : राग-द्वेष से रहित अवस्था । : राग-द्वेष से रहित । : ऐसा सम्यग्दर्शन जो नष्ट भी हो सकता है और नहीं भी । : पापों का त्याग करना । : विशेष महापुरुष । : श्रावक को मुनि बनने की शिक्षा देनेवाले व्रत । : अरिहंत परमेष्ठी का शुद्ध ध्यान । : जब कोई साधक पाँच पापों का पूर्णरूप से त्याग कर देता है, और अपनी आत्मा में लीन हो जाता है, वह अवस्था सकल संयम होती है । : पन्थ, मत। : सम्यग्दर्शन प्राप्त होना । : हिंसादि पाँच पापों से दूर रहना । : सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना । : वस्तु के स्वरूप का सही ज्ञान । : सम्यक् प्रकृति या अच्छा आचरण । सरल - शब्दावली :: 279
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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