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39. रूपस्थ ध्यान
इस अध्याय में 46 पद्यों द्वारा रूपस्थध्यान का वर्णन आया है। रूपस्थध्यान में अर्हन्त भगवान का ध्यान होता है। इस सन्दर्भ में अर्हन्त के अतिशय और जन्ममरण के 18 दोषों का अभाव बताया है, ये विषय आचार्य ने आगम द्वारा सिद्ध करके बताए हैं।
40. रूपातीत ध्यान
इस अध्याय में 31 पद्यों द्वारा रूपातीत ध्यान का वर्णन किया है।
जिस ध्यान में चिन्दानन्दस्वरूप, निर्मल, अमूर्त व अविनाशी आत्मा का स्मरण किया जाता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है । जब योगी एवं ध्यानी, सिद्धपरमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उन्हीं के समान जानकर अपने को उनके समान बनाने के लिए उनमें लीन हो जाता है, उस समय कर्म का नाश होकर सिद्धपद की प्राप्ति होती है।
41. धर्मध्यान का फल
इस अध्याय में 27 पद्य हैं। इसमें धर्मध्यान के फल का वर्णन किया है।
जो मुनि चित्त ( मन ) को स्थिर करना चाहते हैं, पर उनका चित्त विषयों से व्याकुल होकर स्थिर नहीं हो पाता है, इसलिए वह शुक्लध्यान के अधिकारी नहीं बन पाते हैं, उन मुनिराज के लिए कहा है कि पहले राग और द्वेष को नष्ट करके मन को स्थिर करना चाहिए। सदा बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। जिस प्रकार दीपक अन्धकार को शीघ्र ही दूर कर देता है, उसी प्रकार मुनि का स्थिर ध्यान शीघ्र ही कर्मरूप कलंक को नष्ट कर देता है।
धर्मध्यान के फल से वे भव्य जीव ग्रैवेयक विमानों, अनुत्तर विमानों एवं सर्वार्थसिद्धि जैसे पवित्र स्थान में उत्पन्न होते हैं स्वर्गीय दिव्य सुखों को भोगकर पृथ्वी पर उत्तम कुल में जन्म लेते हैं और तीर्थंकरों की विभूति को प्राप्त करके निरन्तर विवेक का आश्रय लेते हैं । रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए घोर तपस्या करते हैं और अपनी शक्ति के अनुसार धर्मध्यान व शुक्लध्यान को स्वीकार करके घातिया कर्मों को नष्ट करते हुए मोक्ष पद प्राप्त करते हैं।
270 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय