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साधु विचार करता है कि मैं क्या हूँ ? मुक्ति क्या है? मुक्ति को प्राप्त जीव का स्वरूप कैसा है? इत्यादि। 35. विपाक-विचय इस अध्याय में 31 पद्यों द्वारा विपाकविचय धर्मध्यान का स्वरूप बतलाया है।
पूर्व के कर्म उदय में आकर जो फल देते हैं, उनका नाम विपाक है। वह कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार के अनुसार प्राणियों को अनेक प्रकार के फल दिया करता है। उनको पृथक्-पृथक् उदाहरणों द्वारा यहाँ स्पष्ट किया गया है।
36. संस्थान-विचय इस अध्याय में 186 पद्य हैं और संस्थान-विचय धर्मध्यान का वर्णन किया है।
संस्थान का अर्थ आकार है। अनन्तानन्त आकाश के बीच में चेतन-अचेतन द्रव्यों से व्याप्त लोक है। यह लोक अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक तीन भागों में विभक्त है। अधोलोक का आकार बेंत के आसन जैसा, मध्यलोक का झालर जैसा तथा ऊर्ध्वलोक का आकार मृदंग जैसा है। इस प्रकार इस अध्याय में लोक के विभागों के आकार और वहाँ रहनेवाले प्राणियों (नारकियों देवों) के दुख, सुख और आयु आदि का विस्तार से वर्णन किया है। 37. पिण्डस्थ ध्यान इस अध्याय में 33 पद्यों द्वारा पिण्डस्थध्यान का वर्णन किया है। यहाँ ध्यान के चार भेदों पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का निर्देश किया गया है। पिण्डस्थ ध्यान में पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और अग्नि आदि की कल्पना किस प्रकार करना चाहिए, इसका वर्णन किया गया है। 38. पदस्थ ध्यान इस अध्याय में 116 पद्यों द्वारा पदस्थध्यान का वर्णन किया है। योगी जब पवित्र पदों (मन्त्रों)का आलम्बन लेकर जो चिन्तन करते है वह पदस्थ ध्यान कहलाता है।
इस अध्याय में मन्त्रपदों के अभ्यास का भी कथन किया है। मन्त्रों का ध्यान करने से मोक्ष प्राप्त होता है। इस ध्यान द्वारा अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं।
ज्ञानार्णव :: 269