________________
30. प्रत्याहार
इस अध्याय में 14 पद्यों में प्रत्याहार का वर्णन है। प्रत्याहार के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा है कि मन को इन्द्रियों के साथ सभी विषयों से ( सब जगह ) खींचकर उसे इच्छानुसार जहाँ धारण किया जाता है उसका नाम प्रत्याहार है। समाधि प्राप्त करने के लिए प्रत्याहार करना अत्यन्त आवश्यक है।
31. सवीर्य ध्यान
इस अध्याय में 42 पद्य हैं। इसमें सवीर्य ध्यान का वर्णन है। योगी जब निरन्तर परमात्मा का स्मरण करता है, तब वह स्वयं तन्मय हो जाता है। इसे ही यहाँ सवीर्यध्यान कहा गया है। इसमें परमात्मा के स्वरूप का भी चित्रण है और साथ ही परमात्मा के दो भेदों- साकार और निराकार का भी निरूपण है ।
32. शुद्धोपयोग - विचार
इस अध्याय में 104 पद्य हैं। इसमें कहा है कि जो योगी अपने आत्मस्वरूप को नहीं जानता है वह परम पुरुष या परमात्मा को नहीं जान सकता है। इसलिए इस सर्ग में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का वर्णन विस्तार से किया है और समस्त कर्मों का नाश कर स्वयं परमात्मा बनने की प्रेरणा दी है।
33. आज्ञा-विचय
इस अध्याय में 22 पद्य हैं और आज्ञाविचय धर्मध्यान का स्वरूप बतलाया है। चित्त को आत्मस्वरूप में स्थिर करने के लिए धर्मध्यान के आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय- इन चार भेदों का निर्देश किया है। सबसे पहले आज्ञाविचय धर्मध्यान बतलाया है। जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा के अनुसार आगमसिद्ध वस्तुस्वरूप का विचार किया जाता है वह आज्ञाविचय कहलाता है।
34. अपाय - विचय
इस अध्याय में 17 पद्य हैं और अपायविचय धर्मध्यान का वर्णन है ।
अपाय का अर्थ है विनाश, जिस ध्यान में कर्मों के विनाश और उसके उपाय का विचार किया जाता है वह अपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है। इस ध्यान में
268 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय