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42. शुक्ल ध्यान का फल
इस अध्याय में 88 पद्य हैं, इसमें शुक्ल ध्यान का फल बताया है।
जो मुनि मन की क्रिया से रहित, इन्द्रियों के विषयों से रहित और ध्यान धारणा से विहीन होकर अन्तर्मुख हो जाता है, समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है, उसे शुक्लध्यान प्राप्त हो जाता है । यह ध्यान निर्मलता तथा कषायों के नष्ट हो जाने के कारण होता है, यह वै मणि ( सर्वश्रेष्ठ मणि) के समान अतिशय निर्मल व स्थिर होता है; इसलिए इसे शुक्लध्यान कहा जाता है। यह शुक्ल ध्यान 11 अंग और 14 पूर्वों के ज्ञाता को, शुद्ध चरित्रवाले को तथा वज्रवृषभनाराचसंहनन (जो सबसे मजबूत हो, जिसको काटा न जा सके) वाले भव्य को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार शुक्लध्यान और शुक्लध्यान के चार भेदों का विस्तार से वर्णन इस अध्याय में किया है ।
अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि मैंने अपनी बुद्धि से जिनागम से कुछ सार को ग्रहण करके ध्यानशास्त्र की रचना की है, पूर्णरूप से तो इसका वर्णन करने में वीरप्रभु ही समर्थ हैं। जब तक सुमेरु, इन्द्र और चन्द्र हैं, तब तक यह शास्त्र अपने वैभव के लिए इस पृथिवी पर अमर रहेगा।
इस प्रकार 42 अधिकारों में निबद्ध यह महाग्रन्थ वास्तव में ध्यान, योग एवं समाधि का उत्कृष्ट महनीय ग्रन्थ है। एक बार जो भव्य प्राणी चित्त को एकाग्र कर इस ग्रन्थ का अध्ययन करेगा, वह ध्यान और ध्याता के उत्तम गुणों को पालन करता हुआ, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान के प्रति अवश्य ही अग्रसर होगा । उसे शीघ्र ही मोक्ष-सम्पदा प्राप्त होगी ।
ज्ञानार्णव :: 271