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________________ 12. स्त्रीस्वरूप इस अध्याय में 49 पद्य हैं और ब्रह्मचर्य महाव्रत के सन्दर्भ में स्त्रीस्वरूप का विश्लेषण किया है। स्त्रियों के स्वभाव के दोष - निर्दयता, दुष्टता, चपलता, धोखादेही और कुशीलता बताए हैं। 13. मैथुन इस अध्याय में 25 पद्य हैं। इसमें स्त्रीसंसर्ग का निषेध किया है। कामाग्नि से पीड़ित पुरुष उसका उपाय मैथुन से करना चाहता है, किन्तु यह उपाय घी से अग्नि को शान्त करने जैसा है । जिस प्रकार कोढ़ी मनुष्य की खुजली खुजलाने से और अधिक बढ़ती जाती है। उसी प्रकार मैथुन क्रिया से कामाग्नि और अधिक बढ़ती है। मैथुन से मनुष्य को मूर्च्छा, परिश्रम और क्षयरोगादि का सामना करना पड़ता है। यह प्राणिहिंसा का कारण है । मैथुन को अतिशय घृणित और कष्टकर कहा गया है। 14. संसर्ग इस अध्याय में 44 पद्यों द्वारा कहा गया है कि स्त्री का संसर्ग मनुष्य को संयम से दूर कर देता है । तपस्वी और जितेन्द्रिय साधु भी स्त्री के सम्पर्क में आकर संयम को क्षणभर में नष्ट कर देता है । अतः स्त्रीसंसर्ग और स्त्री के संसर्ग में रहनेवाले दुराचारी जनों से भी दूर रहने की प्रेरणा इस अध्याय में दी है। 15. वृद्ध - सेवा इस अध्याय में 42 पद्यों में परिणामों में निर्मलता, विद्या और विनय की वृद्धि और विशुद्धि के लिए वृद्धसेवा को आवश्यक बतलाया है। वृद्ध से यहाँ तात्पर्य उनसे है, जो साधक तप, स्वाध्याय, ध्यान, विवेक, यम और संयम से बढ़े हैं। जो प्राणी सदाचारी हैं, वे आयु से कम होते हुए भी वृद्ध माने गये हैं। इन सदाचारी मनुष्यों के साथ रहने से आदर्श जीवन व सदुपदेश की प्रेरणा पाकर मार्गभ्रष्ट जीव भी सन्मार्ग लग सकता है। इस अध्याय में वृद्धसेवा, सत्समागम से प्राप्त होनेवाले अनेक को प्रकट किया है। 264 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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