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और तीन गुप्ति - इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र का वर्णन इस अध्याय में है ।
9. सत्यव्रत
इसमें 42 पद्य हैं और सत्य महाव्रत का वर्णन किया है। असत्य वचन अहितकर और सत्य वचन हितकर होते हैं । अतः सदा सत्य की प्रशंसा और असत्य वचन की निन्दा होती है । असत्य बोलने से गूंगापन, बुद्धि की हीनता, मूर्खता, बहिरापन और मुख के रोग होते हैं, अतः सत्य ही बोलना चाहिए । जो व्यक्ति सत्य बोलता है, उसे वचनसिद्धि हो जाती है अर्थात् वह जो कह देता है, वही घटित हो जाता है।
10. चौर्यपरिहार
चौर्यपरिहार अर्थात् चोरी करने का त्याग करना । दशम अध्याय में 20 पद्य हैं और अस्तेय महाव्रत का स्वरूप बताया है 1
इसमें कहा गया है कि चोरी करने से सम्पदा नहीं आती है । लोगों को गलत धारणा है कि चोरी करने से सम्पत्ति बढ़ती है। यदि ऐसा होता तो चोरों के नाम पर नगर बन जाते । चोरी करने से पाप और अपयश ही बढ़ता है। इस अध्याय में चोरी के कर्म को अनेक प्रकार से अनर्थकर सिद्ध किया है।
11. कामप्रकोप
ग्यारहवें अध्याय में 48 पद्य हैं। इसमें ब्रह्मचर्य महाव्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसमें शरीर - संस्कार, रससेवन, गीत, नृत्य, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीसंकल्प, स्त्री-अंग-निरीक्षण आदि दस प्रकार के मैथुनों के त्याग का भी वर्णन आया है। ब्रह्मचर्य का पालन करके मुनिराज परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करते हैं, दुर्बल प्राणी इस व्रत का पालन करने में समर्थ नहीं हैं । कामवासना की निन्दा करते हुए कहा है कि कामवासना कालकूट महाविष की अपेक्षा अधिक भयानक है। कालकूट विष का तो उपाय है, किन्तु कामवासना नामक महाविष का कोई उपाय नहीं है। कामवेग से प्रभावित मनुष्य पुत्रवधू, सास, पुत्री, बहिन, बालिका और तिर्यंचनी तक के सेवन की इच्छा करता है। वर्तमान में प्रतिदिन इसके उदाहरण दिखाई दे रहे हैं। अतः ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर धर्म में अग्रसर होना चाहिए। इस महाविष से बचने का एकमात्र सहारा संयम ही है।
ज्ञानार्णव :: 263