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ध्याता, ध्यान के दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित समस्त अंग, ध्याता तथा ध्येय के गुणदोष, ध्यान के नाम, ध्यान का समय और ध्यान के फल का वर्णन किया गया है।
ध्याता के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु (कष्ट सहन करनेवाला) है, संसार से विरक्त है और शान्त है वही व्यक्ति ध्याता हो सकता है और जो मिथ्यादृष्टि है और जो संसार के विषयों में आसक्त है वह ध्याता नहीं हो सकता है।
ध्यान का आशय मन को एकाग्र करना है, चित्त की चंचलता को रोकना है।
5. ध्याता की प्रशंसा इस अध्याय में 29 पद्य हैं। इसमें ध्यान करनेवाले योगीश्वरों की प्रशंसा करते हुए कहा है कि जो व्यक्ति कामभोगों से विरक्त होकर शरीर से ममताभाव छोड़ चुका है, जिसका चित्त स्थिर हो चुका है और जो प्राण जाने पर भी संयम को नहीं छोड़ता है, वस्तुत: वही ध्याता प्रशंसा के योग्य है। वह 'ध्यान-धनेश्वर' है। पवित्र आचार का पालन करनेवाले मुनिजन ही ध्यानसिद्धि के पात्र हैं। 6. सम्यग्दर्शन इस अध्याय में 49 पद्य हैं और इसमें सम्यग्दर्शन का वर्णन आया है। सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुठार है और पवित्र तीर्थों में यही प्रधान है। इसमें साततत्त्व, षद्रव्य, नवपदार्थ और पंचास्तिकाय आदि का वर्णन आया है। यहाँ सम्यग्दर्शन की महिमा को प्रकट करते हुए कहा है कि मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के आश्रय से ही होती है।
7. सम्यग्ज्ञान इस अध्याय में 23 पद्य हैं और सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया है। ज्ञान के स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि जिसमें तीनों कालों के समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय और सभी पदार्थ एक साथ दिखाई देते हैं, उसे ही यथार्थ ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान के लक्षण एवं ज्ञान के भेदों का वर्णन करते हुए केवलज्ञान के स्वरूप को प्रकट किया है। केवलज्ञान का महत्त्व भी बताया है।
8. अहिंसाव्रत इसमें 49 पद्य हैं और सम्यक्चारित्र का वर्णन किया है। पंच महाव्रत, पंच समिति 262 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय