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16. परिग्रह-दोष-विचार इसमें 42 पद्य हैं। इसमें परिग्रहत्याग महाव्रत का वर्णन आया है। जिस प्रकार नौका में अधिक भार रखने से नौका नदी में डूब जाती है, उसी प्रकार अधिक परिग्रह रखने से संयमी पुरुष भी संसार-समुद्र में डूब जाता है। परिग्रह के दो प्रकार बताए हैं-बाह्य और अभ्यन्तर । दोनों प्रकार के परिग्रह को त्याग कर ही मनुष्य संयमी बन सकता है।
17. इच्छा का त्याग इस अध्याय में 21 पद्यों द्वारा आशा (इच्छा) त्यागने की बात कही है। जब तक शरीर और धन आदि के विषय में आशा बनी रहती है तब तक परिग्रहत्याग महाव्रत सम्भव नहीं है, इसलिए सबसे पहले आशा को छोड़ने की बात इस अध्याय में कही है।
18. पंचसमिति इस अध्याय में 39 पद्यों में पंचसमितियों का वर्णन आया है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन-इन पाँच समितियों का पालन साधु करते हैं। 19. कषायनिन्दा इस अध्याय में 77 पद्यों द्वारा कषाय की निन्दा की गयी है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारों कषाय रत्नत्रयगुण को विकृत करती हैं। ये प्राणी को शान्त नहीं रहने देती हैं।
20. इन्द्रियविषय-निरोध इसमें 38 पद्य हैं और इनमें इन्द्रियों के विषयों का वर्णन किया है। प्राणियों की इन्द्रियाँ जैसे-जैसे अपने वश में होती हैं, वैसे-वैसे उनके हृदय में विशिष्ट ज्ञानरूप सूर्य अतिशय प्रकाशित होता है। जीव एक-एक इन्द्रियों के वशीभूत होकर भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जो जीव पंच-इन्द्रियों के विषयों में नहीं फंसे हैं, उन्हें सद्गति प्राप्त हो सकती है। यहाँ पर इन्द्रियों को वश में करने की प्रशंसा की गयी है, क्योंकि इन्द्रियों को जीते बिना कषायों पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती है। अतएव क्रोधादि कषायों को जीतने के लिए इन्द्रिय-विजय आवश्यक है।
ज्ञानार्णव :: 265