SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्र स्वाध्याय के लिए होना चाहिए। मुनि को शरीर से किंचित् भी राग नहीं होना चाहिए। मुनि को निरन्तर गुणों का पालन करते हुए तपों में लगा रहना चाहिए। यदि तुम मुनि बने हो तो विशुद्ध आत्म कल्याण करो। विशुद्ध भावना धारण करो, यदि मन हट जाए तो फिर विशुद्ध भाव धारण करने की कोशिश करो। जो शुभोपयोग में लग जाते हैं, वे मुनि नहीं हैं, मात्र मुनियों जैसे हैं। उन्हें चतुर्गति में भ्रमण करना पड़ता है। अतः शुद्धोपयोगी बनो। आचार्य ने स्त्री-मुक्ति का भी निषेध किया है, क्योंकि स्त्रियाँ स्वभाव से चंचल होती हैं, उनके मन में मोह-राग-द्वेष ज्यादा होते हैं। शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता के कारण और सवस्त्र होने के कारण स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं है। एकाग्रता के बिना मुनि नहीं होता और एकाग्रता उसे होती है जिसने आगम के अभ्यास द्वारा पदार्थों को जाना है। अतः आगम का अभ्यास ही मुनि का सर्वप्रथम कर्तव्य है। साधु को आगमचक्षु' कहा गया है। आगम ही साधु के नेत्र हैं। सभी लोग आँखों से देखते हैं, पर साधु आगम की आँखों से देखता है। आगमरूपी चक्षु के उपयोग बिना स्व-पर-भेदविज्ञान सम्भव नहीं है। आगम से ही द्रव्य, गुण और पर्याय जाने जाते हैं । आगम से ही पुरुष संयमी होते हैं, अतः आगम का ज्ञान करना आवश्यक है। आगम की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जो कर्म अज्ञानीजन करोड़ों वर्ष तक तप करके नष्ट करते हैं वह कर्म ज्ञानी जन मन-वचन-काय की चंचलता रोककर एक क्षण में ही नष्ट कर सकते हैं। इस अधिकार में आगमज्ञान की अद्भुत महिमा बताई है, परन्तु आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान को निरर्थक भी बताया है। जिस व्यक्ति को शरीर के प्रति थोड़ा भी मोह है, वह सर्वागम का धारी हो तो भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। आत्मज्ञान और आगमज्ञान दोनों का होना परमावश्यक है। सच्चा श्रमण वही है जिसके लिए शत्रु और मित्र समान हो, सुख और दुख समान हो, प्रशंसा और निन्दा समान हो, मिट्टी और सोना समान हो और जीवनमरण भी समान हो। शुभोपयोग अधिकार के अन्त में बताया है कि भावलिंगी मुनिराजों को किस प्रकार का शुभपरिणाम सम्भव है और किस प्रकार का शुभ परिणाम सम्भव नहीं है। मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप समझने के लिए इस अध्याय का अध्ययन बहुत गहराई से करना चाहिए। वास्तविक धर्म तो शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म ही है। आचार्य कुन्दकुन्द 248 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy