________________
अतः अपनी आत्मा को शुद्धोपयोगी बनाओ। अरहन्त भगवान को जानो और अपनी आत्मा का अनुभव करो। 2. ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन या सम्यग्दर्शनाधिकार (गाथा 93-200) इस महाधिकार में तीन अवान्तर अधिकार हैं-1. द्रव्यसामान्याधिकार, 2. द्रव्यविशेषाधिकार, 3. ज्ञान-ज्ञेय विभागाधिकार।
यह दूसरा अधिकार द्रव्यमीमांसा है, जगत मीमांसा है। अर्थात् इस अध्याय में द्रव्य के सामान्य और विशेष गुण और स्वरूप बताए हैं।
ज्ञेय तत्त्व का स्वरूप बताते हुए कहते हैं-ज्ञेय अर्थात् पूरा जगत । जैनदर्शन के अनुसार यह विश्व अनन्तानन्त द्रव्यों के समूह का ही दूसरा नाम है, अत: इस विश्व को जानने के लिए द्रव्य का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है।
द्रव्य का लक्षण : ‘सत् द्रव्यलक्षणम्' अर्थात् सत् ही द्रव्य का लक्षण है। जो सत् है वही द्रव्य है।
सत् क्या है? जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त हो वही सत् है। इस विश्व में जितने भी चेतनाचेतन पदार्थ हैं, वे सभी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त हैं, अत: द्रव्य हैं।
उत्पाद : पदार्थ में नवीन अवस्था का आना, जैसे-दही का बनना। व्यय : पूर्ण अवस्था का त्याग, जैसे-दूध का दही बनना। ध्रौव्य : वस्तु के स्वभाव की स्थिरता, जैसे-गोरस
उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता, व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता। तीनों एक समय में एक साथ होते हैं। एक ही समय में तीनों एक साथ पाए जाते हैं। जैसेसोना ध्रौव्य है और सोने से अंगूठी का उत्पाद हुआ और अंगूठी से व्यय होकर कुण्डल बना।
इस विश्व में द्रव्य (मूल द्रव्य) जितने हैं, उतने ही हैं, न कभी एक नया द्रव्य उत्पन्न होता है और न ही कभी कोई पुराना नष्ट होता है। सभी द्रव्य सनातन हैं, शाश्वत हैं, अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे।
सभी द्रव्य सदा परिवर्तन करते रहते हैं, कोई भी द्रव्य किसी भी समय बिना परिवर्तन के नहीं रहता है, परिवर्तन उसका स्वभाव ही है, परन्तु यह परिवर्तन प्रत्येक द्रव्य सदैव अपनी सीमा में ही करते हैं, कोई भी द्रव्य अपना मूल स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। जैसे-बालक में भी परिवर्तन होता है और बालिका में भी। ये दोनों अपने-अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हैं, अपने को छोड़कर दूसरों के पास
प्रवचनसार :: 245