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________________ बुलाता है, न कोई परिवर्तन करता है। अरहन्त भगवान ज्ञान से ही सब जानते हैं। इसके अलावा उनका उठना, बैठना, चलना सब सहज होता है। वे कुछ करते नहीं हैं। सब अपने आप होता है। वे तो केवल सब जानते हैं। त्रिकाल के सभी पदार्थों को जो एक साथ जानता है, वह ज्ञान केवलज्ञान है। केवलज्ञान में एक साथ सैकड़ों लोक भी आ जाए तो भी वह सबको एक साथ दर्पण के समान जान लेते हैं। केवलज्ञान लोकालोक में व्याप्त है, लेकिन वह किसी को इष्ट और अनिष्ट नहीं समझता। केवलज्ञान का स्वरूप भव्य जीवों को ही समझ आता है। जो जीव केवलज्ञान पर श्रद्धा करते हैं, वही जीव भव्य है, जो श्रद्धा नहीं करते वह अभव्य हैं। इस अधिकार के अन्त में कहा गया है कि पापभाव के कारण जो समस्याएँ, प्रतिकूलताएँ आती हैं, वे तो दुख ही हैं, लेकिन पुण्य भाव (शुभ परिणामों) से हमें जो लौकिक सुख, अनुकूलता और भोग सामग्री मिलती है, उसका उपयोग करना भी दुख ही है। देव-शास्त्र-गुरु की पूजा, दान और तप करने से शुभ परिणाम होते हैं, इसमें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। शुभोपयोग से मनुष्यगति और देव गति मिलती है, परन्तु इन गतियों के जो सुख है, वह वास्तव में दुख ही है। तृष्णा के कारण विषय दुख देते हैं। इन्द्रियों का सुख 5 कारणों से दुख है (i) इन्द्रिय सुख दूसरों के आधीन (पराधीन) है। (ii) इन्द्रिय सुख नष्ट हो सकता है। (iii) इन्द्रिय सुख विषम है। एक जैसा नहीं रहता है, बदलता रहता है। (iv) उसमें बाधाएँ आती हैं। (vi) वह बन्ध का कारण है। अरहन्त भगवान की सिर्फ पूजा करने से काम नहीं चलेगा, उनको द्रव्य, गुण, पर्याय से जानना होगा। जो जीव अरहन्त भगवान को उनके गुणों से जानता है, उसका ही मोह नष्ट होता है। मोह नष्ट करने के लिए प्रमुख दो ही उपाय हैं(1) अरहन्त भगवान को द्रव्य, गुण, पर्याय से ठीक-ठीक जानना। (2) शास्त्रों का अध्ययन, चिन्तन और मनन गहराई से करना। 244 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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