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________________ जिसको अतीन्द्रिय ज्ञान, केवलज्ञान, अनन्तज्ञान और अतीन्द्रिय सुख प्राप्त हो जाता है, उसको सांसारिक और शारीरिक सुख-दुख नहीं होते हैं। वह तो केवलज्ञान को प्राप्त कर उत्तम सुख को प्राप्त कर लेता है। जब आत्मा स्वयं शुद्ध रूप में परिवर्तित हो जाता है, स्वयं ज्ञानवान हो जाता है, वही सच्चा ज्ञान है, वही सच्चा सुख है। केवलज्ञान का स्वरूप केवलज्ञान मतलब शुद्ध ज्ञान । केवलज्ञान शुद्धोपयोग से ही प्रगट होता है। अरहन्तों का जो ज्ञान होता है, वह केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान ही अतीन्द्रियज्ञान, क्षायिकज्ञान और अतीन्द्रियसुख है। ये सब नाम पर्यायवाची शब्द हैं। 1. प्रवचनसार ग्रन्थ का सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसमें केवलज्ञान का स्वरूप बहुत अच्छे से बताया है। इतना सुन्दर स्वरूप अन्यत्र दिखाई नहीं देता है। 2. केवलज्ञान ही सबसे बड़ा प्रमाण है। 3. तीन लोक, तीन काल के सभी द्रव्य, गुण और सभी पर्यायों को एक साथ एक ही समय में प्रत्यक्ष जान लेना ही केवलज्ञान है। समस्त विश्व के पदार्थ केवलज्ञान में प्रत्यक्ष युगपत प्रतिबिम्बित होते हैं। अर्थात् केवलज्ञानी को समस्त विश्व दर्पण के समान एक साथ दिखाई देता है। जैसे-दर्पण में हमारी आकृति जैसी है, वैसी ही दिखाई देती है, वैसे ही केवलज्ञानी को विश्व के समस्त पदार्थ एक साथ दिखाई देते हैं। 4. केवलज्ञानी समस्त विश्व के पदार्थों को इन्द्रियों से नहीं जानते, क्रम से भी नहीं जानते। अपितु जैसा है वैसा ही स्पष्ट एक साथ जानते हैं। 5. केवलज्ञान समस्त ज्ञान को बिना परिवर्तन के जान लेता है। भूत और भविष्य की सभी पर्यायों को केवलज्ञान वर्तमान के समान साफ-साफ जानता है। यदि केवलज्ञान भूत और भविष्य को वर्तमान में नहीं जाने तो केवलज्ञान को दिव्यज्ञान कैसे कहेंगे? अर्थात् तीनकाल की पर्यायों को बिना क्रम से स्पष्ट जानने के कारण ही केवलज्ञान 'दिव्यज्ञान' कहलाता है। ज्ञान पदार्थों को आँखों की तरह जानता है। जैसे-हमारी आँखें पदार्थों को मात्र देखती हैं, उनके पास नहीं जाती हैं, पदार्थों को बुलाती भी नहीं है, उनमें कोई परिवर्तन भी नहीं करती हैं, जैसे पदार्थ हैं, उन्हें वैसा ही जानती-देखती हैं। आँखें पदार्थों को बिना छुए ग्रहण करती हैं। उसी प्रकार ज्ञान बाहर से नहीं आता, आत्मा में ही रहता है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञान पदार्थों में न प्रवेश करता है, न प्रवचनसार :: 243
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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