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________________ क्रियाएँ नहीं। उसी प्रकार हिंसादि पापों में लगे रहनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव को पाप बन्ध का कारण राग-द्वेष आदि भाव होते हैं, उसकी चेष्टाएँ या कर्म नहीं होते हैं। जो यह मानता है कि मैं स्वयं दूसरे जीवों को सुखी - दुखी करता हूँ, वह अज्ञानी है, मूर्ख है। ज्ञानी ऐसा नहीं मानता। वह मानता है कि जीव कर्म के उदय से सुख-दुखी होते हैं। हिंसा की तरह ही जीव झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि पाप अपनेअपने कर्मोदय से ही करता है । कोई किसी को पुण्य-पाप नहीं कराता है । अभव्य जीव, मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी जीव व्रत और तप करता है, श्रद्धा से रहित होकर शास्त्र पढ़ता है, तो उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता । उसे मोक्ष भी प्राप्त नहीं होता । 9. मोक्षाधिकार (गाथा 288 से 307 तक ) मोक्षाधिकार में सभी शास्त्रों के मर्म को समझाया है। जैसे—कोई व्यक्ति बन्धनों (जेल, पिंजरा आदि ) में जकड़ा हुआ है, यदि वह बन्धनों से मुक्त होने का सिर्फ सोचे तो वह बन्धन - मुक्त नहीं हो सकता, उसके लिए उसे प्रयास करना पड़ेगा, तभी वह बन्धन - मुक्त होगा। ठीक उसी तरह व्यक्ति कर्म-बन्धनों में बँधा हुआ है। यदि वह कर्म - बन्धनों से मुक्त होने का सोचे तो वह मुक्त नहीं हो सकता, उसके लिए उसे जीव और बन्ध दोनों को पहचानकर ज्ञानरूपी छैनी से दोनों को अलग-अलग करना पड़ेगा। शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना पड़ेगा। तभी वह जीव मुक्त होगा । जिस प्रकार जिसने कभी कोई अपराध नहीं किया है, वह व्यक्ति बिना डरे नि:शंक होकर घूमता रहता है, उसी तरह जो व्यक्ति आत्मा को जान लेते हैं, समझ लेते है, उन्हें कर्मबन्धनों का कोई डर नहीं होता है। वह बिना डरे संसार में रहते हैं । अतः मोक्षाधिकार में यही सन्देश देते हैं कि जो आत्मा को अच्छी तरह से जान लेता है, वास्तव में वही ज्ञान और तप आदि क्रियाओं को जान लेता है । यही मोक्षमार्ग है। 10. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ( गाथा 308 से 415 तक ) जिस प्रकार आँख दूसरे पदार्थों को मात्र देखती ही है, इसके अलावा अन्य कोई काम नहीं करती । न कर्म करती है, न भोगती है । मात्र देखती रहती है । इसी प्रकार 1 238 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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