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________________ यह अध्याय भेदविज्ञान की बहुत अच्छी शिक्षा देता है। आज तक जितने भी पुरुष सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई कर्मबन्धनों में बँधे हैं, वे सब भेदविज्ञान को न जानने के कारण ही कर्मबन्धनों में बँधे हैं। 7. निर्जराधिकार (गाथा 193 से 236 तक) निर्जरा अर्थात् कर्मों का झड़ना, कर्मों का खिर जाना या शुभाशुभ कर्म नष्ट होना है। सम्यग्दृष्टि किसी भी परपदार्थ को अपना नहीं मानता इसलिए उसको हमेशा निर्जरा होती है। जिस प्रकार कोई वैद्य या डॉक्टर विष भी खा ले तो योग्य औषधि के बल से उसकी मृत्यु नहीं होती है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गलकर्म के कारण भोगों को भोगता भी है, तब भी उन भोगों में बँधता नहीं है। जिस प्रकार एक आदमी (जैसे नौकर) बहुत काम करते हुए भी कुछ कर नहीं पाता अर्थात् वह मालिक नहीं बन पाता। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता है, क्योंकि उसकी उसमें रुचि नहीं होती है। इसलिए वह कर्मों से बँधता नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी पर-पदार्थ में अपनत्व बुद्धि और सुख बुद्धि नहीं रखता है, इसलिए उसे हमेशा निर्जरा होती है। इसके विपरीत जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे परपदार्थ (घर, नौकर, गाड़ी और मकान) में अपनत्व बुद्धि रखते हैं, उन्हें अपना मानते हैं इसलिए उनके कर्मों की निर्जरा नहीं होती है अर्थात् उनको शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध होता रहता है। सम्यग्दृष्टि सदा सम्यग्दर्शन के आठ अंगों (नि:शंका, निकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना) का धारी होता है अर्थात् वह इनको हमेशा धारण करता है। इसलिए वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को कार्य करते हुए एवं उसका फल भोगते हुए भी कर्मबन्ध नहीं होता है और निर्जरा होती है, क्योंकि वह आत्मा को जान लेता है। उसमें विद्यमान ज्ञान और वैराग्य को धारण कर लेता है। इस बात को ही विस्तार से इस निर्जरा अधिकार में समझाया गया है। 8. बंधाधिकार (गाथा 237 से 287 तक) जिस प्रकार धूल भरे स्थान में तेल लगाकर कोई व्यक्ति व्यायाम करे और कुल्हाड़ी आदि के द्वारा केले आदि वृक्षों को काटे तो उसके शरीर पर जो धूल चिपक जाती है, उसका कारण तेल की चिकनाहट ही है, धूल और शरीर की समयसार :: 237
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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