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मोह-राग-द्वेष और पुण्य-पाप के परिणामों (विचारों) को ही भावात्रव कहते हैं। इन परिणामों के कारण जो पुद्गल कर्मों का आस्रव होता है, वे द्रव्यास्रव हैं।
इस आस्रव अधिकार में सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को निरास्त्रव (आस्रव से रहित) सिद्ध किया है। क्योंकि जो अपनी आत्मा को जानता है, वह पुण्य-पाप, राग-द्वेष से भी दूर हो जाता है, इसलिए वह आस्रवों से भी दूर हो जाता है।
इसलिए हमें आस्रवों को दूर हटाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमें तो बस अपनी 'आत्मा' को जानना चाहिए। यदि हम आत्मा को जानेंगे, तो आस्रव अपने आप हट जाएँगे।
जो आत्मा को नहीं जानता है, जो मिथ्यादृष्टि है, उसके पास ही सारे आस्रव होते हैं।
जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपच हो या पेट में कोई तकलीफ हो, तो उसके द्वारा खाया हुआ अन्न भी पच नहीं पाता, उसे उससे और अधिक तकलीफ होती है। इसी तरह जो जीव मिथ्यादृष्टि है, जिसके पास राग-द्वेष-मोह और पुण्य-पाप आदि आस्रव हैं, वही अनेक प्रकार के कर्म बाँधता है।
____ अतः हमें आत्मा को जानना चाहिए। शुद्ध सम्यग्दृष्टि आत्मा को जानता है, इसलिए उसे निरास्रव कहा गया है।
6. संवराधिकार (गाथा 181 से 192 तक) संवर अधिकार भेदविज्ञान करना सिखाता है। आस्रवों का निरोध करना (रोकना) संवर है। संवर से संसार का नाश होता है और मोक्षमार्ग का आरम्भ होता है, अत: संवर साक्षात् धर्मस्वरूप ही है।
हमारी आत्मा में ज्ञानधारा भी है और रागधारा भी है। ज्ञानधारा आत्मा की अपनी है। ज्ञानी जन या सम्यग्दृष्टि जीव अनेक कर्मोदय (शुभ-अशुभ, अच्छाबुरा समय) आने पर भी अपनी ज्ञानधारा को नहीं छोड़ते हैं। जैसे-सोना आग में तपने पर भी अपने सुवर्णत्व को नहीं छोड़ता है।
दूसरी तरफ रागधारा पुद्गल की है, कर्मों की है, इसलिए इसे पुद्गल जानना चाहिए, परन्तु अज्ञानी जन मोह के कारण आत्मा को, स्वभाव को नहीं जानते हैं, और राग को, पुद्गल को ही आत्मा मानते हैं।
जो आत्मा को शुद्ध जानता है, उसको शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है और जो आत्मा को अशुद्ध मानता है, उसे अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है। 236 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय