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________________ अतिरिक्त दूसरों का कर्त्ता मानना अज्ञान है । यह व्यवहारी जीवों का मोह है कि आत्मा को दूसरों का कर्त्ता - भोक्ता मानते हैं । जैसे – युद्ध, योद्धाओं द्वारा ही किया जाता है, तथापि व्यवहार में यही कहा है कि युद्ध राजा ने किया है। 6. जिस प्रकार प्रजा के दोष - गुणों का उत्पादक राजा को कहा जाता है, उसी प्रकार शरीर के परिवर्तन का कर्त्ता जीव को कहा जाता है । इस प्रकार अनेक उदाहरणों द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट करते हैं कि आत्मा का परद्रव्य (शरीर, पुद्गल और आस्रव आदि) के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पहले अधिकार में दूसरों से एकत्व और ममत्व और दूसरे अधिकार में दूसरों के कर्त्ता और भोक्ता – इन दो बातों का निषेध कर भेदविज्ञान स्पष्ट किया है । ये दोनों ही अधिकार भेदविज्ञान के लिए समर्पित अधिकार हैं । 4. पुण्यपापाधिकार ( गाथा 145 से 163 तक ) इस अधिकार में कहा है कि शुभ भाव एवं शुभकर्मों को पुण्य और अशुभ भाव एवं अशुभ कर्मों को पाप कहा जाता है। ये शुभ-अशुभ, पुण्य और पाप दोनों ही कर्म हैं, कर्मबंध के कारण हैं, आत्मा को बन्धन में डालनेवाले हैं। | अशुभ कर्म कुशील (बुरे) हैं और शुभकर्म सुशील (अच्छे) हैं- ऐसा सब जानते हैं, परन्तु जो कर्म जीवों को संसार में प्रवेश कराते हैं, वे कर्म सुशील कैसे हो सकते हैं ? जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है । अर्थात् दोनों बेड़ियाँ बाँधने का काम करती हैं, दोनों ही अच्छी नहीं हैं। उसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्म (पाप और पुण्य ) दोनों ही जीव को बाँधते हैं, बन्धन में डालने के कारण ये पुण्य-पाप दोनों ही कर्म समान ही हैं। पुण्य-पाप के अन्तर को समझना, यही इस अधिकार का मूल प्रयोजन है । 5. आस्त्रवाधिकार ( गाथा 164 - 180 तक ) जिन पुण्य-पाप की चर्चा पुण्यपापाधिकार में की थी, वे पुण्य-पाप के विचार ही आस्रव हैं। समयसार :: 235
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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