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________________ जब तक हम अपने से भिन्न परपदार्थों में स्त्री, पुरुष, मकान, दुकान, पुत्रपुत्री और ग्राम-नगर इनको अपना मानते रहेंगे; यह मेरे हैं, मैं इनका हूँ, मैं इनका कर्ता हूँ, यह मेरे कर्ता हैं, इन्होंने मुझे बनाया है, मैं इनको बनाता हूँ, इत्यादि भावना करते रहेंगे, तब तक हम अज्ञानी ही हैं। जब हम इस तरह की भावना को छोड़ देंगे तब हम ज्ञानी बनेंगे। व्यवहार में कहा जाता है कि जीव और शरीर एक है। वास्तव में जीव और शरीर एक नहीं हो सकते। दोनों अलग-अलग हैं। समझदार व्यक्ति इनमें भेदविज्ञान करता है। ___ जैसे-जब हम भगवान की स्तुति करते हैं, पूजा करते हैं तो हम उनके शरीर की पूजा नहीं करते अपितु हम उनके गुणों की पूजा, स्तुति करते हैं। उनकी वीतरागता एवं सर्वज्ञता आदि गुणों की स्तुति करते हैं। आचार्य कहते हैं कि प्रतिदिन एकान्त में बैठकर थोड़ी देर चिन्तन करो कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, परद्रव्य परभावों से बिलकुल रहित हूँ। दर्शन-ज्ञान स्वभावी हूँ और अणुमात्र भी पदार्थ मेरा नहीं है। 2 जीवाजीवाधिकार (गाथा 39 से 68 तक) इस अधिकार में कहा है कि जीव और अजीव को अलग-अलग समझो। इनको एक मत समझो। जीव को अजीव के साथ, अजीव को जीव के साथ मत मिलाओ। जैसे-मैं काला हूँ, मैं सुन्दर हूँ। पर जीव (आत्मा) काला और सुन्दर नहीं होता। अजीव, पुद्गल, शरीर, रूप यह सब काला और सुन्दर होता है। इस तरह हमने जीव (आत्मा) और अजीव (शरीर) को मिला दिया है। जीव का कर्ता, कर्म एवं अधिकरण सब अलग हैं। अजीव का कर्ता, कर्म अधिकरण सब अलग हैं। जीव के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, शरीर, मोह, राग और द्वेष नहीं हैं। यद्यपि ये दूध और पानी की तरह एक साथ रहते हैं, लेकिन जिस तरह दूध और पानी अलग हैं, उसी तरह आत्मा और शरीर अलग-अलग हैं। इसी प्रकार व्यक्ति के कर्मों और वर्णों को देखकर व्यवहार से कहा जाता है कि यह वर्ण जीव का है। वर्ण के साथ-साथ गन्ध, रस, स्पर्श, रूप और देह आदि के बारे में भी समझना चाहिए कि ये सब विचार व्यवहार से जीव के हैं। निश्चय से जीव के ये विचार नहीं होते। शास्त्रों में जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, पंचेन्द्रिय और सूक्ष्म आदि जो जीव कहे गए हैं, वे सब नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। इनको पढ़ते-जानते समयसार :: 233
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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