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8. मनःपर्ययज्ञान : दूसरे के मन में स्थित अर्थ को (भाव को, विचार को) जो एकदेश प्रत्यक्ष जानता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं।
ये दोनों ज्ञान मूर्त पदार्थ को ही प्रत्यक्ष जानते हैं, उसकी सब पर्यायों को नहीं जानते, कुछ ही पर्यायों को ही जानते हैं अर्थात सामने जो द्रव्य है उसकी कुछ पर्यायों (अवस्था, गति) को जानते हैं। 9. केवलज्ञान : केवलज्ञान सब द्रव्यों की सब पर्यायों को एक साथ जानता
है, इसीलिए उसे अनुपम ज्ञान कहा जाता है।
4. नय परिभाषा : (1) प्रमाण द्वारा जो वस्तु ग्रहण की जाती है, उसके एक अंश को या एक भाग को जानना या कहना नय है।
(2) श्रुतज्ञान के आश्रय से ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं। अर्थात् श्रुतज्ञान के एक अंश को जानना नय है।
(3) नय श्रुतज्ञान का भेद है, इसलिए श्रुत के आधार से ही नय की प्रवृत्ति होती है। श्रुत प्रमाण होने के कारण सकलग्राही (सबको जाननेवाला) होता है, उसके एक अंश को ग्रहण करनेवाला नय होता है।
श्रुतज्ञान के दो नाम हैं-उनमें से एक का नाम स्याद्वाद है और दूसरे का नाम नय है।
अनेकान्त का मूल नय है। नय का महत्त्व (1) नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं हो सकता। जो धर्म का मूल
सिद्धान्त अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को जानना चाहता है, उसे नय को
समझना होगा। (2) ध्यान का अभ्यास करनेवालों को या ध्यान करनेवालों को नय और प्रमाण
का स्वरूप अवश्य जानना चाहिए। (3) सम्यग्दृष्टि बनने के लिए वस्तु स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है और _ वस्तु स्वरूप के ज्ञान के लिए नयदृष्टि का होना आवश्यक है।
नय के भेद जैन सिद्धान्त में वस्तु अनेक स्वभाववाली मानी गयी है। जो नित्य (स्थिर और
नयचक्र :: 225