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मन को वश में करने का श्रेष्ठ उपाय यही है कि उससे शान्तिपूर्वक एकान्त में सारी बात की जाए और उसे सम्पूर्ण वस्तुस्थिति का सही-सही ज्ञान कराया जाए। उसे द्रव्य-गुण-पर्याय और कर्म सिद्धान्त आदि का भी निष्पक्ष होकर ज्ञान कराना चाहिए। उसे भली प्रकार समझा देना चाहिए कि जिसे तुम अपना घर समझ रहे हो, वह वास्तव में तुम्हारा घर नहीं है, अपितु जेलखाना है । इस शरीर की तुम कितनी ही सेवा करो, यह तुम्हारा नहीं होनेवाला है । और जब यह शरीर ही तुम्हारा अपना नहीं हो सकता तो अन्य क्या हो सकता है ?
अन्त में आचार्य कहते हैं कि 'परमात्मप्रकाश' के स्वाध्याय की योग्यता उसी में है
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परिवार, संघ, समाज और आहार आदि के मोह से अत्यन्त दूर रहो ।
अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का चिन्तन हमेशा करते रहो । प्रतिकूलता आने पर भी अपना मनोबल मत गिराओ, अपना मनोबल सदा ऊँचा ही रखो।
किसी के निष्ठुर वचनों को भी तत्त्वचिन्तन करके सहन करो, कभी क्रोध मत करो।
अपने मन में किसी भी प्रकार की तनिक सी भी शल्य मत रखो,
अन्यथा वह अवश्य बहुत दुख देगी।
निर्विकल्प परमसमाधि को कभी भी मत भूलना ।
पंचेन्द्रिय को अपने वश में करो, इन्द्रियों को कभी खुला मत छोड़ो ।
जिसके हृदय में परमात्मा की भक्ति भरी हुई है ।
जो पंचेन्द्रिय-विषयों में रमता नहीं है।
जिसमें विचक्षण ज्ञान है और जो शुद्ध मनवाला है।
जो जीव भाव - सहित परमात्मप्रकाश का स्वाध्याय करते हैं, वे शीघ्र ही
मोह को जीतकर परमार्थ के ज्ञाता हो जाते हैं और उनको लोकालोक को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है।
जो संसार के दुखों से अत्यन्त भयभीत है।
जिसे मात्र मोक्ष की ही अभिलाषा है ।
परमात्मप्रकाश :: 219