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1. जो जानता - देखता है वह जीव है ।
2. जिसमें स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण आदि पाए जाएँ वह पुद्गल है।
3. जो जीव- पुद्गलों के गमन में साधन हो उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । 4. जो जीव और पुद्गलों की स्थिति में साधन हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं ।
5. जो सर्वद्रव्यों को अवगाहन देता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। 6. जो सर्व द्रव्यों के परिणमन में निमित्त है उसे काल द्रव्य कहते हैं ।
पुद्गल के छह भेद
1. स्थूल-स्थूल : जो टूट कर मिलते नहीं । जैसे- पत्थर, काष्ठ आदि । 2. स्थूल : जो टूटकर फिर मिल जाते हैं । जैसे- जल, तेल, घी आदि । 3. स्थूल सूक्ष्म : जो दिखाई तो दे, पर पकड़ने में न आए। जैसे - छाया, चाँदनी आदि ।
4. सूक्ष्म - स्थूल : जो नेत्र से नहीं दिखाई देते, परन्तु अन्य इन्द्रियों से पकड़ में आते हैं। जैसे- रस, गन्ध आदि ।
5. सूक्ष्म : जो मिले हुए हैं फिर भी दिखाई नहीं देते। जैसे - कर्मवर्गणा । 6. सूक्ष्मसूक्ष्म : जिसका दूसरा भाग नहीं होता वह परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म है।
इसके बाद आचार्य समताभाव की प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि जो समताभाव से रहित हैं उन दुर्जनों की संगति कभी नहीं करना चाहिए ।
पुण्य और पाप की समता बताते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पाप को नहीं समझता, वह मोह के वशीभूत होकर अनन्त काल तक भटकता रहता है। देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति से पुण्य होता है । लेकिन शुभोपयोग की जगह शुद्धोपयोग को ही प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि शुद्धोपयोगी के ही संयम, शील और तप सम्भव होते हैं, सबसे प्रधान शुद्धोपयोग ही है । अतः शुद्धोपयोग अर्थात् आत्मा को प्राप्त करना चाहिए।
जिनदीक्षा धारण करने के बाद किंचित् भी परिग्रह नहीं रखना चाहिए, ऐसी आज्ञा आचार्य अपने शिष्य को देते हैं। आत्मनिरीक्षण और आत्म-शुद्धि सबसे पहले आवश्यक है । जिस प्रकार पानी को बहुत बिलोने पर भी हाथ चिकना तक नहीं होता, उसी प्रकार श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र रहित जीवों को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है ।
आगे आचार्य अपने शिष्य को समझाते हुए कहते हैं कि
218 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय