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________________ उसके बाद जीव और अजीव को समझाते हुए कहते हैं कि जीव और अजीव सदा अलग-अलग ही हैं, उनको एक नहीं किया जा सकता; तथापि अज्ञानी जीव इन दोनों को एक ही मानता है। जीव अर्थात् आत्मा, चेतना। अजीव अर्थात् अनात्मा, अचेतन। अजीव पाँच प्रकार का है-पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। अज्ञानी जीव आत्मा और शरीर को एक मानता है। जैसे-यदि जीव यह मानता है कि मैं खा रहा हूँ, पी रहा हूँ, तो वह जीव और पुद्गल को एक मानता है। वह मानता है कि मैं जीव को गमन कराता हूँ, चला रहा हूँ तो वह जीव और धर्मद्रव्य को एक करता है। यदि वह मानता है कि मैं जीव को रोकता हूँ तो वह जीव और अधर्म द्रव्य को एक करता है। ___'मैं जीव को जगह देता हूँ'-ऐसा मानना जीव और आकाश द्रव्य को एक करना है। मैं जीव को परिवर्तन कराता हूँ'-ऐसा मानना जीव और काल द्रव्य को एक करना है। आत्मा के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। इन मान्यताओं का अनेकान्तवाद के अनुसार समन्वय किया जा सकता है। यथा आत्मा केवलज्ञान से सम्पूर्ण लोकालोक को जानता है, इसलिए सर्वगत कहा जाता है। आत्मा इन्द्रियजनित ज्ञान से रहित है, इसलिए जड़ कहा जाता है। सिद्ध दशा में अन्तिम शरीर के प्रमाण रहता है, इसलिए देह प्रमाण कहा जाता है। आत्मा समस्त कर्मों व विभावों से अत्यन्त रहित हो जाता है, इसलिए शून्य भी कहा जाता है। जो आत्मा को जान लेता है, वह सब कुछ जान लेता है, क्योंकि 1. सम्पूर्ण द्वादशांग का सार एक आत्मा ही है, अत: जिसने एक आत्मा को जाना उसने सब जान लिया। 2. जगत में दो ही प्रकार के पदार्थ हैं-स्व और पर। जो आत्मा को जानता है वह स्व और पर में कभी कोई भूल नहीं करता है; अत: यह सही है कि जिसने आत्मा को जाना उसने सब जान लिया। 3. जो आत्मा को जानता है वह ज्ञान से लोकालोक को जान लेता है। 4. जो आत्मा को जानता है वह शीघ्र ही निर्विकल्प समाधि के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त करके सम्पूर्ण लोकालोक को जान लेता है। 5. आत्मा ही परलोक है, क्योंकि आत्मा ही 'पर' को अर्थात् उत्कृष्ट स्वभाव को 'लोक' में देखता है। निर्विकल्प समाधि या आत्मध्यान का महत्त्व समझाते हुए कहा है कि जिस परमात्मप्रकाश :: 215
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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