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प्रकार अग्नि की एक कणी पर्वत के समान घास के ढेर को भस्म कर देती है, उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्मों को क्षणभर में नष्ट कर देती है।
इस अधिकार के अन्त में आचार्य भेदाभेद रत्नत्रय की भावना और सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का स्वरूप समझाते हैं। इस प्रकार मात्र 123 दोहों में आचार्य ने अपने शिष्य को इस महत्त्वपूर्ण विषय को सरलता से समझाया है।
दूसरा मोक्षाधिकार ( 1-214)
इस मोक्षाधिकार का मुख्य विषय मोक्ष, मोक्ष का फल और मोक्ष का मार्ग है । सबसे पहले मोक्ष क्या है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि आत्मा की उस पूर्ण स्वाधीन दशा का नाम ही मोक्ष है, जो उत्तम सुख से परिपूर्ण है। मोक्षमार्ग ही सर्वोत्तम है, यह बताते हुए कहते हैं कि
1. मोक्ष सर्वोत्तम है तभी तो वह तीनलोक में सबसे ऊपर है।
2. मोक्ष प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े तीर्थंकर आदि धर्म, अर्थ और कामवैभव को छोड़ देते हैं ।
3. मोक्ष में उत्तम सुख है तभी सिद्ध जीव अनन्तकाल तक वहीं रहते हैं, लौटकर नहीं आते हैं ।
4. मोक्ष अर्थात् बन्धन से रहित दशा, स्वतन्त्रता, आजादी ।
संसार के सभी प्राणी मुक्ति चाहते हैं, पशु-पक्षी भी मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं । पशु-पक्षी को सोने के पिंजरे में भी कैद करो, उनकी अच्छी देखभाल भी करो, लेकिन वह हमेशा उन्मुक्त आकाश की ओर ही जाना चाहते हैं ।
इसके बाद मोक्ष का फल समझते हुए कहा है कि अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य का अनन्तकाल तक निरन्तर लाभ होना ही मोक्ष का फल है। अर्थात् मोक्ष प्राप्त होने पर अनन्त सुख की अवस्था प्राप्त होती
है।
आचार्य ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का कारण बतलाया है, इन्हें निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों प्रकार से समझाया है।
इसके बाद षड्द्रव्यों का परिचय दिया है जिसे संक्षेप में निम्नलिखित चार्ट द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये षड्द्रव्य हैं
216 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय