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[3 × 3 × 4 × 5 × 10 × 10 = 18,000]
इन सबके परस्पर में गुणा करने से अठारह हजार शील के भेद हो जाते हैं। अर्थात् तीन योग को तीन करण से गुणा करने से नौ, नौ को चार संज्ञा से गुणा करने पर छत्तीस, छत्तीस को पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एक सौ अस्सी, इन्हें पृथ्वी आदि दस काय से गुणा करने पर अठारह सौ और पुनः इन्हें दस धर्म से गुणा करने पर शील के अठारह हजार भेद हो जाते हैं।
भेद: हिंसा के 21, अतिक्रमण के 4, काय के 100, विराधना के 10, आलोचना के 101 और शुद्धि के 10 भेद होते हैं, इनका परस्पर गुणा करने पर चौरासी लाख गुण हो जाते हैं ।
[21 × 4 × 100 × 10 × 10 × 10 = 84,000,00]
हिंसा : प्रमादपूर्वक प्राणियों के प्राणों का वियोग करना हिंसा है। अतिक्रमण : विषयों की इच्छा करना अतिक्रमण है।
काय : सभी जीव समास अर्थात् सभी प्रकार के जीव ।
विराधना : अब्रह्म के दश कारण ।
आलोचना : पापों का प्रायश्चित करना ।
शुद्धि: स्त्री साहचर्य के दोष ।
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इस प्रकार गुण के चौरासी लाख भेद होते हैं । शील और गुण के भेदों का विस्तार से वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
12. पर्याप्ति अधिकार ( 1044-1249 )
आहार आदि कारणों की सम्पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं ।
इस पर्याप्ति अधिकार में षड्पर्याप्तियों का वर्णन आया है - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ।
पर्याप्ति के संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थितिकाल ये छ: भेद हैं। इन सभी भेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन इस अधिकार में है 1
जीव की छह पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव (मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकी) के अनेक भेदों का कथन किया है, क्योंकि जीवों के नाना भेदों को जानकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। 'मूलाचार' ग्रन्थ के पढ़ने का फल मूलगुणों को ग्रहण करके अनेक उत्तरगुणों को भी प्राप्त करना है ।
पुनः तपस्या और ध्यान विशेष के द्वारा कर्मों को नष्ट करना ही इस ग्रन्थ के स्वाध्याय का फल दिखलाया है।
मूलाचार :: 211