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________________ 6. पिण्डशुद्धि-अधिकार (गाथा 420-501) पिण्डशद्धि अर्थात् भोजन-शुद्धि। मुनिराज शरीर धारण के हेतु आहार ग्रहण करते हैं। शरीर धर्म-साधना का कारण है, अत: उसका भरण-पोषण कर आत्मसाधना के मार्ग में गतिशील होना परमावश्यक है। अत: यहाँ भोजन-शुद्धि के दोष बताए हैं। इस अधिकार में पिण्डशुद्धि के आठ प्रकार कहे हैं1. उद्गम दोष : दाता के दोष । 2. उत्पादन दोष : पात्र (बर्तन) के दोष जिनमें भोजन बनता है। 3. अशनदोष : परोसने में दोष। 4. संयोजना दोष : भोजन देते समय किसी वस्तु को मिलाने में दोष। 5. प्रमाणदोष : नियम का उल्लंघन करना। 6. अंगारदोष : अंगारों के समान दोष। 7. धूमदोष : धुएँ के समान दोष। 8. कारणदोष : कारण-निमित्त से जो होता है वह दोष। उद्गम के 16 दोष, उत्पादन के 16 दोष, अशन के 10 दोष, इस प्रकार 42 दोष बताए हैं। पुनः संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम-इन चारों के 46 दोष बताए हैं। मुनिराज इन 46 दोषों को टालकर और 32 अन्तरायों को छोड़कर आहार लेते हैं। किन कारणों से आहार लेते हैं, किन कारणों से छोड़ते हैं, इत्यादि का वर्णन इस अधिकार में विस्तार से किया है। 7. षडावश्यकाधिकार (गाथा 502-692) इस अधिकार में मुनिराज के छह आवश्यक-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग बताए हैं। इन षडावश्यकों का विस्तार से वर्णन; इनके दोषों का वर्णन, छह आवश्यक करने का फल आदि महत्त्वपूर्ण बातें इस अधिकार में बताई हैं। जैसे-आवश्यक शब्द का अर्थ, सामायिक के छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिक की व्याख्याएँ, चतुर्विंशतिस्तवन और भावस्तवन, तीर्थ का स्वरूप, वन्दनीय साधु, कायोत्सर्ग के फल और दोष आदि का वर्णन है। साथ ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग विधि को भी समझाया है। 8. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार (गाथा 693-768) इस अधिकार में बारह अनुप्रेक्षाओं (बारह भावनाओं) का वर्णन है, जिनका मूलाचार :: 209
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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