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________________ 5. आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका में मूलाचार के उदाहरण ‘आचारांग' नाम से देकर इसका आगमिक महत्त्व बताया है। 6. मूलाचार ग्रन्थ के प्राचीन और श्रुतपरम्परा में विद्यमान होने के कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में इस ग्रन्थ की गाथाएँ प्रचलित हैं। 7. इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पर श्री मेघचन्द्राचार्य ने और श्री वसुनन्दि आचार्य ने दो महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखी हैं। मूलाचार ग्रन्थ पर श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बारह हजार श्लोक प्रमाण बृहत् टीका लिखी है। 1 ग्रन्थ का मुख्य विषय वट्टकेर आचार्य का यही एक ग्रन्थ उपलब्ध है । यह ग्रन्थ 12 अधिकारों में विभक्त है। इसमें कुल 1252 गाथाएँ हैं । 1. मूलगुणाधिकार ( गाथा 1-36 ) सबसे पहले मंगलाचरण में आचार्य सिद्ध भगवान को नमस्कार करते हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से विशिष्ट शुद्ध और श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त हैं, सकल गुणों के भण्डार हैं। मूलभूत जो गुण हैं, वे मूलगुण कहलाते हैं। इस अधिकार में मुनि के 28 मूलगुणों के नाम बतलाकर पुनः प्रत्येक का लक्षण बतलाया है। इन मूलगुणों का पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है। यह भी बताया है। इन मूलगुणों से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है, अत: यह साध्य है और यह मूलाचार शास्त्र उसके लिए साधन है। 2. वृहत्प्रत्याख्यानाधिकार ( गाथा 37-107 ) 1 प्रत्याख्यान अर्थात भविष्यकाल के दोषों की शुद्धि । मुनियों के छह काल होते हैं उनमें आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल - इन तीन कालों का वर्णन 'भगवती आराधना' में कहा गया है। शेष तीन काल दीक्षाकाल, शिक्षाकाल और गणपोषणकाल - इन तीनों का वर्णन इस अधिकार में किया है। क्षपक (समाधि लेनेवाला) को समस्त पापों को त्यागकर मृत्यु के समय में दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओं में स्थिर रहना है और क्षुधादि 22 परिषहों को जीतकर कषायों से (काम, क्रोध, मोह और माया) रहित होना है । यहाँ बहुत मूलाचार :: 207
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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