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________________ समस्त प्रकार के आहार के विकल्प को जीवनपर्यन्त के लिए त्याग देते हैं तथा समस्त परिग्रह को त्याग देते हैं। सभी परीषहों को जीतकर धर्म ध्यान करते हैं। यदि कोई उपसर्ग हो तो उसका प्रतिकार नहीं करते हैं । उसे निर्भय होकर सहन करते हैं । वह इन्द्रियों और निद्रा पर विजय प्राप्त करते हैं । महाबली और शूरवीर होते हैं । वे जीवन से राग और मरण से द्वेष नहीं करते हैं । वे दिन-रात के आठों पहरों में निद्रा को त्यागकर एकाग्र मन से ध्यान करते हैं। देवों या मनुष्यों के द्वारा पूछे जाने पर थोड़ा-सा धर्मोपदेश भी करते हैं। इस तरह इंगिणी मरण की साधना करके कोई साधु समस्त क्लेशों से छूटकर मुक्त हो जाते हैं और कोई मरकर वैमानिक देव हो जाते हैं। प्रायोपगमन प्रायोपगमन की भी विधि इंगिणी के समान ही है। जिन साधु में अस्थि-चर्म मात्र शेष रहता है वही प्रायोपगमन करते हैं । यदि कोई उन्हें पृथ्वी जल आदि में फेंक देते हैं तो वैसे ही पड़े रहते हैं । प्रायोपगमन में साधु न स्वयं अपनी सेवा करते हैं, न दूसरों से कराते हैं। शरीर से मोह का त्याग करनेवाले प्रायोपगमन के धारी क्षपक (साधु) जिस क्षेत्र में जिस प्रकार से शरीर का कोई अंग पूर्व में रखा गया है, उसे वैसे ही पड़ा रहने देते हैं, स्वयं अपने अंग को हिलाते-डुलाते नहीं हैं । इस विधि में तृणशय्या लेने का भी निषेध है । भक्तप्रत्याख्यान में तो साधु अपनी सेवा स्वयं भी कर सकते हैं और दूसरों से भी करा सकते हैं । इंगिणी में अपनी सेवा स्वयं कर सकते हैं, दूसरों से नहीं करा सकते। किन्तु प्रायोपगमन में अपनी सेवा न स्वयं करते हैं और न दूसरों से कराते हैं । यही इन तीनों मरण में भेद है । 1 1 इस प्रकार इस ग्रन्थ में इन तीन मरणों पर विशेष चर्चा की गयी है प्रसंगवश सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विशेष वर्णन है । इस ग्रन्थ में अनेक विषयों का वर्णन किया है, जैसे- मिथ्यादृष्टि, छह आवश्यक, बारह तप, बाईस परीषह, बारह व्रत, षट्द्रव्य, धर्मध्यान, योगध्यान, केवलज्ञान, सिद्धक्षेत्र का स्वरूप और उत्कृष्ट माध्यम- जघन्य आराधना का फल आदि-आदि । परन्तु विशेष वर्णन तो आराधना (मरण, संन्यास, समाधि) का ही है, अतः इसका नाम आराधना है। आराधना का यह अद्भुत, अपूर्व, विशाल और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 204 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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