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1. अविचार प्रत्याख्यान : यदि अचानक/सहसा मृत्यु होनेवाली हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है ।
2. सविचार प्रत्याख्यान - साहस और बल से युक्त साधु के जिसका मरण अचानक न होनेवाला हो उसे सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है ।
जिसको कोई असाध्य रोग हो, मुनिधर्म को हानि पहुँचानेवाली वृद्धावस्था हो, देव, मनुष्य या तिर्यंचों द्वारा कोई शत्रु या मित्र चारित्र का विनाश करनेवाले हों, दुर्भिक्ष हो या पैरों में चलने-फिरने की शक्ति न हो, आँखों से कम दिखाई देता हो, कान से कम सुनाई देता हो, इस प्रकार के कारण उपस्थित होने पर साधु अविचार भक्त प्रत्याख्यान करता है । सहसा मरण उपस्थित होने पर मुनि कर्मों को नष्ट कर मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।
जिसका मुनिधर्म चिरकाल तक निर्दोष रूप से पालन हो सकता है, अथवा समाधिमरण कराने के लिए साधु/त्यागी व्रती साथ में हो या किसी भी तरह का कोई भय नहीं हो तब साधु भक्तप्रत्याख्यान को धारण नहीं करता है।
ग्रन्थ में भक्तप्रत्याख्यान इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है । साधुओं के लिए यह अध्याय महत्त्वपूर्ण है ।
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भक्तप्रत्याख्यान का उत्कृष्ट समय बारह वर्ष कहा गया है । इसको धारण करने वाले मुनिराज बारह वर्ष तक वह उत्कृष्ट तप करते हुए शरीर की सल्लेखना करते हैं । वे प्रतिक्षण परिणामों की विशुद्धि की ओर सावधान रहते हैं । इस प्रकार से सल्लेखना करनेवाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं 1 आचार्य अपना आचार्य पद संघ के योग्य शिष्य / साधु को सौंप देते हैं, सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्य को शिक्षा देते हैं, उसके पश्चात् संघ को शिक्षा देते हैं ।
इंगिणी मरण
जो साधु इंगिणी मरण करना चाहते हैं, वे साधु संघ से अलग होकर गुफा आदि में अकेले रहते हैं । वह अपने लिए तृणशय्या बनाते हैं। उनका कोई सहायक नहीं होता । स्वयं अपनी सेवा करते हैं, स्वयं ही उपसर्ग सहन करते हैं । निरन्तर बारह भावनाओं के चिन्तन में, स्वाध्याय में लीन रहते हैं। यदि पैर में काँटा लग जाए या आँख में धूल चली जाएँ तो स्वयं दूर नहीं करते। भूख-प्यास सब कुछ सहन करते हैं
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भगवती आराधना :: 203