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________________ साधन : जब रत्नत्रय से मन हटने लगे तो अन्य उपायों से पुनः मन स्थिर करना साधन है । निस्तरण : आमरण अवस्था तक रत्नत्रय को पूर्ण शुद्ध रीति से धारण करना निस्तरण है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप - इन चारों की उन्नति होने के लिए इन पाँचों उपायों की आवश्यकता है। इस प्रकार प्रत्येक में उद्योतन आदि इन पाँच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं । इस ग्रन्थ में इन सभी भेद-प्रभेदों का वर्णन आया है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप का वर्णन जिनागम में अन्यत्र भी है, किन्तु वहाँ उन्हें ' आराधना' शब्द से नहीं कहा है अर्थात् इन चारों का वर्णन समाधिमरण के साथ नहीं किया है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से समाधिमरण का कथन है। मरते समय तक की आराधना ही यथार्थ आराधना है । अतः जो मरते समय ' आराधक' (निर्मल परिणाम वाला भव्य जीव) होता है, यथार्थ में उसी की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप की साधना को आराधना कहा है। उक्त वर्णन करने के बाद इस विशालकाय ग्रन्थ का मुख्य विषय मरणसमाधि प्रारम्भ होता है। यद्यपि जिनागम में सत्तरह प्रकार के मरण कहे हैं, किन्तु संक्षेप से पाँच प्रकार के मरण हैं। यथा 1. पण्डित - पण्डित मरण : केवलज्ञानी का जो मरण होता है उसे पण्डित - पण्डित मरण कहते हैं या निर्वाण लाभ कहते हैं । 2. बाल-पण्डित मरण: देशसंयमी का मरण बालपण्डित मरण है। इसमें श्रावक बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ) का पालन करता है । 3. बाल मरण : अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बाल मरण है। 4. बाल-बाल मरण : मिथ्यादृष्टि (अभव्य जीव) का मरण बाल-बाल मरण है। 5. पंडित मरण : शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधु का मरण पंडित मरण है। उसके तीन प्रकार हैं- 1. भक्तप्रतिज्ञा 2. प्रायोपगमन 3. इंगिणी । इनमें से भक्तप्रतिज्ञा नामक पण्डित मरण का इस ग्रन्थ में विशेष वर्णन है । भक्तप्रतिज्ञा या भक्तप्रत्याख्यान प्रायः साधुओं के भक्तप्रत्याख्यान मरण ही होता है। इसके दो भेद हैं202 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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