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________________ अनेक कथाकोशों का जनक (जन्म देनेवाला) है। 3. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप के साथ आराधना का वर्णन करनेवाला यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें सात प्रकार के मरण का विशेष वर्णन किया गया है। 4. यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है कि इस ग्रन्थ पर सातवीं शताब्दी से ही टीकाएँ और विवृत्तियाँ लिखी जा रही हैं। यथा विजयोदया टीका - अपराजित सूरि मूलाराधना दर्पणटीका - आशाधर जी आराधनापंजिका - प्रभाचन्द्र जी भावार्थ दीपिका - शिवजित अरुण जी ग्रन्थ का मुख्य विषय भगवती आराधना में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप–इन चार आराधनाओं का वर्णन किया गया है। मंगलाचरण : ग्रन्थ की प्रथम गाथा में ग्रन्थकार ने चार प्रकार की आराधना के फल को प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तों को नमस्कार किया है। ____ वस्तुतः इस ग्रन्थ में आराध्य, आराधक, आराधना और आराधना के फल । का वर्णन किया है। आराध्य : जिसकी पूजा की जाती है, वह रत्नत्रय आराध्य है। आराधक : निर्मल परिणाम वाले भव्यजीव आराधक हैं। आराधना : जिनसे रत्नत्रय की प्राप्ति होती है वे उपाय आराधना है। आराधना का फल : रत्नत्रय की आराधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह आराधना का फल है। आराधना का अर्थ : आचार्य देव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप को आराधना कहा है। इन चारों की आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरणइन उपायों से होती है। उद्योतन : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को अतिचारों से दूर रखना या रत्नत्रय में दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है। उद्यवन : आत्मा में बार-बार रत्नत्रय की भावना भाते रहना उद्यवन है। निर्वहण : सभी परीषहों (22 परीषह) को जीतकर स्थिर चित्त होकर सम्यग्दर्शनादि में दृढ़ रहना, व्रतों से दूर न होना निर्वहण है। भगवती आराधना :: 201
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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