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आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। जिसे मन्द कर्मोदय से रत्नत्रय भी प्राप्त हो गया हो, वह व्यक्ति यदि तीव्र कषाय के अधीन रहे, तो उसका रत्नत्रय नष्ट हो जाता है और वह दुर्गति का पात्र बनता है।
सबसे पहले तो मनुष्यगति की प्राप्ति ही दुर्लभ है और उसके बाद सम्यग्दर्शन होना दुर्लभ है। सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर भी सम्यक् ज्ञान का मिलना कठिन है। इस प्रकार इस अध्याय में बोधि (सम्यक् ज्ञान) की दुर्लभता का कथन करते हुए रत्नत्रय के स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला है।
12. धर्मानुप्रेक्षा (गाथा 302-435) जो समस्त लोक ओर अलोक को भूत-भविष्य-वर्तमान काल को, समस्त गुण पर्यायों से संयुक्त प्रत्यक्ष रूप से जानता है वह सर्वज्ञ देव है।
धर्मानुप्रेक्षा में धर्म का यथार्थ स्वरूप इन्द्रियों के विषयों से रहित होना बतलाया है। धर्म का वास्तविक रूप सर्वज्ञता है। सर्वज्ञता के अस्तित्व में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता है। सर्वज्ञदेव सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की अवस्थाओं को जानते हैं। सर्वज्ञ के ज्ञान में सब कुछ प्रकाशित होता है। उनके ज्ञान में जिस प्रकार की पदार्थों की पर्यायें प्रतिबिम्बित होती हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है। उसमें कोई किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं कर सकता।
जिस जीव के जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से जन्म-मरण, दुख-सुख, रोग-दारिद्र आदि सर्वज्ञदेव के द्वारा जाने गये हैं, वे नियम से उस प्राणी को, उसी देश में, उसी काल में और उसी विधान से प्राप्त होते हैं । इन्द्र, जिनेन्द्र या अन्य कोई भी उसका निवारण नहीं कर सकते। इस प्रकार से जो जीव छः द्रव्यों और समस्त पर्यायों का श्रद्धान करता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।
इस प्रकार धर्मानुप्रेक्षा में व्यवहार-धर्म और निश्चय-धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके साथ बारह तप, सात तत्त्व, बारह व्रत, दस धर्म, ध्यान आदि का वर्णन भी किया है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक धर्म और मुनिधर्म को संक्षेप में अवगत करने के लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। श्रावक गण इसका स्वाध्याय अवश्य करें, ऐसी हमारी भावना है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा :: 199