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________________ 5. अन्यत्वानुप्रेक्षा (गाथा 80-82 ) अन्यत्वानुप्रेक्षा में शरीर से आत्मा को भिन्न अनुभव करने का वर्णन किया है। सभी बाह्य पदार्थ आत्मस्वरूप से भिन्न हैं । आत्मा ज्ञान-दर्शन- सुखरूप है और यह संसार के समस्त पदार्थों के स्वरूप से भिन्न है । इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा में आत्मा के भिन्न स्वरूप के चिन्तन का वर्णन किया है। 6. अशुचित्वानुप्रेक्षा ( गाथा 83-87 ) अशुचित्वानुप्रेक्षा में शरीर को समस्त अपवित्र वस्तुओं का समूह मानकर विरक्त होने का सन्देश दिया गया है। शरीर अत्यन्त अपवित्र है । इसके सम्पर्क में आनेवाले चन्दन, कर्पूर, केसर आदि सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गन्धित हो जाते हैं । अतः इसकी अशुद्धता का चिन्तन करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है । जो भव्य प्राणी परदेह (स्त्री आदि) से विरक्त होकर अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है, वह अपने आत्मस्वरूप में लीन रहता है । उसके लिए अशुचि भावना फलदायी है अर्थात् जो ऐसा विचार करता है उसे वैराग्य भाव प्रकट होता है। 7. आस्रवानुप्रेक्षा (गाथा 88-94 ) मन, वचन, काय की क्रिया योग है, ये ही आस्रव हैं । अर्थात् मन, वचन और काय तीनों के योग से जो कर्म करते हैं, उन कर्मों के बन्ध का कारण आस्रव है । इस जीव के मोह के उदय से जो परिणाम होते हैं, वे ही आस्रव हैं। मन्द कषाय के परिणाम से शुभास्रव होते हैं, और तीव्र कषाय के परिणाम से अशुभास्रव होते हैं। जो जीव शत्रु और मित्र में, हित और अहित वचनों में समता भाव रखता है। सब जीवों के अच्छे गुण ग्रहण करता है, उसे मन्दकषाय के कारण शुभास्रव होते हैं । जो जीव अपनी प्रशंसा करता है, अन्य पुरुषों के भी दोष ग्रहण करने का उसका स्वभाव है और वह बहुत समय तक वैर धारण करता है तो उसे तीव्रकषाय होती है। उसे अशुभास्रव होता है। अतः आम्रवानुप्रेक्षा का चिन्तन करना चाहिए। पहले तीव्र कषाय छोड़ना चाहिए, फिर आत्मस्वरूप का ध्यान करना चाहिए। कार्तिकेयानुप्रेक्षा : 197
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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