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________________ कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। उसी प्रकार मरते हुए जीव की कोई रक्षा नहीं कर सकता। देव, मन्त्र, तन्त्र, क्षेत्रपाल आदि सभी मृत्यु से रक्षा करने में असमर्थ हैं। रक्षा करने के लिए जितने उपाय किये जाते हैं, वे सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं। आयु के क्षय होने पर कोई एक क्षण के लिए भी आयु दान नहीं कर सकता। देवेन्द्र भी मृत्यु से किसी की रक्षा नहीं कर सकता। केवल सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र ही एकमात्र शरण है। इस प्रकार अशरण रूप चिन्तन का समावेश इस अशरण-भावना में किया है। 3. संसार-अनुप्रेक्षा (गाथा 32-73) संसार अनुप्रेक्षा में बताया गया है कि संसार-परिभ्रमण का कारण मिथ्यात्व और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) हैं। इन दोनों के निमित्त से और पाँच पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह) के कारण ही जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है। इस भावना में चतुर्गति के दुखों का वर्णन संक्षेप में किया है। मनुष्यगति के दुखों का वर्णन करते हुए संसार स्वभाव का वर्णन किया है कि संसार में सुख नहीं है। इस मनुष्यगति में नाना प्रकार के दुख हैं। किसी के पुत्र का मरण हो जाता है, किसी की पत्नी का मरण हो जाता है। किसी के घर जलकी एवं कुटुम्ब लड़कर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार मनुष्यगति में अनेक प्रकार के दुखों को सहन करता हुआ यह जीव धर्म की बुद्धि के अभाव के कारण कष्ट प्राप्त करता है। मनुष्यगति की तो बात ही क्या, देवगति में भी अनेक प्रकार के दुख इस प्राणी को सहन करने पड़ते हैं। 4. एकत्वानुप्रेक्षा (गाथा 74-79) एकत्वानुप्रेक्षा में बताया है कि जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही नाना प्रकार के कष्टों को भोगता है। रोग, शोक, कष्ट अकेला ही भोगता है। पाप के कारण अकेला ही नरक जाता है, और पुण्य अर्जन कर अकेला ही स्वर्ग जाता है। अपना दुख अपने को अकेले ही भोगना पड़ता है, उसका कोई भी हिस्सेदार नहीं है। इस प्रकार जीव अकेला ही है, इस संसार में उसका अपना कोई नहीं है। 196 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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