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अतः प्राणियों को इष्ट की प्राप्ति में हर्ष और अनिष्ट की प्राप्ति में दुख नहीं करना चाहिए, जो समान भाव से रहता है, वही ज्ञानी है।
परिवार, पुत्र, स्त्री, सुन्दरता, सगे-सम्बन्धी और गोधन इत्यादि सारी वस्तुएँ मेघ (बादल) के समान अस्थिर हैं।
प्राणी इन्द्रियों के विषय, नौकर, घोड़े, हाथी, घर, महल इनमें सुख मानता है, परन्तु ये सब क्षण-विनश्वर हैं।
___ जिस प्रकार मार्ग में चलते हुए कोई पथिक मिल जाता है, परन्तु क्षण में ही वह दूर हो जाता है, उसी प्रकार सगे-सम्बन्धियों का संयोग है, जिनका शीघ्र ही वियोग हो जाता है। इसलिए अपने असली स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए। पुण्य के उदय से प्राप्त होनेवाली चक्रवर्ती की सम्पदा भी स्थिर नहीं है। वह भी नष्ट हो जाती है। यह लक्ष्मी पानी की लहर के समान चंचल है। अतः समय रहते जब तक सम्पदा है उसका दान करना चाहिए और पुण्य का बन्ध करना चाहिए।
जो पुरुष लक्ष्मी को निरन्तर जोड़ता है, न दान करता है, न भोगता है, उसकी लक्ष्मी दूसरों की लक्ष्मी के समान है।
जो पुरुष धन जमीन में गाड़ता है, उसका धन पत्थर के समान है। जो व्यक्ति अपनी धन सम्पदा को पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान, परोपकार इत्यादि धर्मकार्यों में खर्च करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान है, सभी उसकी प्रशंसा करते हैं।
— धन, यौवन, जीवन यह सब जल के बुलबुले के समान हैं, यह नष्ट होनेवाले हैं। परन्तु प्राणी मोह के कारण इनको नित्य, स्थिर मानता है।
अतः जो प्राणी संसार, देह, भोग, लक्ष्मी इत्यादि को अस्थिर मानकर अपने मन को विषयों से छुड़ा देता है, अर्थात् इन सभी से अपना मोह नष्ट कर देता है। वह भव्यजीव सिद्धपद (मोक्ष) प्राप्त करता है। 2. अशरण-अनुप्रेक्षा (गाथा 23-31) अशरण अर्थात् जिसका कोई भी शरण न हो, जिसकी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता।
जिस संसार में देवों के इन्द्र का, हरि, नारायण, ब्रह्मा और विधाता आदि सभी का मरण हो जाता है, उस संसार में कोई भी किसी को नहीं बचा सकता है। तात्पर्य यह है कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसका मरण न हो। ऐसा सोचना अशरण भावना है।
जिस प्रकार वन में सिंह हिरण के बच्चे को पैर के नीचे दबा लेता है, तब
कार्तिकेयानुप्रेक्षा :: 195