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________________ 3. चञ्चल मन एवं विषय-वासनाओं के निरोध के लिए ये अनुप्रेक्षाएँ लिखी गयी हैं। 4. ये बारह भावनाएँ संयम की शिक्षा देनेवाली और वैराग्य जननी हैं। 5. आचार्य उमास्वामी द्वारा लिखित 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ के अनुसार ही इस ग्रन्थ में बारह भावनाओं का क्रम आया है। क्योंकि मूलाचार, भगवतीआराधना, आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित 'बारह - अणुवेक्खा' में बारह भावनाओं का क्रम थोड़ा भिन्न है । 6. मनोविज्ञान, अध्यात्म, वैराग्य, भूगोल आदि की शिक्षा देनेवाला यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 7. श्रमण (मुनि) और श्रावक दोनों ही एकाग्रता के साथ इस ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं। 1 ग्रन्थ का मुख्य परिचय कार्तिकेयानुप्रेक्षा में 489 गाथाएँ हैं। इनमें अध्रुव, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। साथ में प्रसंगवश जीव आदि सात तत्त्वों के स्वरूप के साथ द्वादशव्रत, पात्रों के भेद, दाता के सात गुण, दान की श्रेष्ठता, दान का महत्त्व, सल्लेखना, दश धर्म, सम्यक्त्व के आठ अंग, बारह प्रकार के तप एवं ध्यान के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया है। आचार्य का स्वरूप एवं आत्मशुद्धि की प्रक्रिया इस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक वर्णित है। मंगलाचरण : मंगलाचरण में सबसे पहले आचार्य देव, शास्त्र, गुरु को नमस्कार करते हैं । इसके बाद पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार किया है। अनुप्रेक्षा का अर्थ : अनुप्रेक्षा का सामान्य अर्थ है बारम्बार चिन्तन करना । इन बारह भावनाओं का बार-बार चिन्तन करना ही द्वादशानुप्रेक्षा है। 1. अध्रुव अनुप्रेक्षा ( गाथा 4 से 22 ) अध्रुव का अर्थ है नष्ट होना । जगत में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका नष्ट होना निश्चित है । जो द्रव्य, जीव और अजीव उत्पन्न होते हैं, उनका नाश भी होता है । यह पर्याय का स्वभाव है। इसमें हर्ष - विषाद (सुख - दुख) नहीं करना चाहिए । जिसका जन्म हुआ है उसका मरण निश्चित है । यौवन है तो बुढ़ापा निश्चित है 1 लक्ष्मी है तो विनाश निश्चित है । इस प्रकार सब वस्तुएँ अस्थिर क्षणभंगुर हैं। 194 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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