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हमें आत्मा को ही अपना मानकर उसे ही समझना चाहिए, क्योंकि रास्ता तो एक ही अपनाना होगा। यदि व्यवहार में सोते रहें तो आत्मा को जान लेंगे और यदि आत्मा को जानने में सोते रहें तो व्यवहार को ही अपना मानेंगे।
अतः आचार्य कहते हैं कि आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान दूसरों से तो बहुत बार सुन लेते हैं। दूसरों को भेदविज्ञान समझा भी देते हैं। परन्तु जब तक, हम भेद विज्ञान को समझकर अपनी आत्मा को नहीं जान लेते, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए आत्मा को शरीर से अलग समझो। आत्मा में इस प्रकार खो जाओ कि सोते समय स्वप्न में भी आपको शरीर और आत्मा अलग-अलग दिखाई दे।
लिंग, वेशभूषा आदि शरीर पर आश्रित होते हैं, अतः आत्मज्ञानी मनुष्य लिंग और वेशभूषा पर आश्रित नहीं होता। यदि वह इन विकल्पों में उलझेगा तो आत्मा के परम पद को प्राप्त नहीं करेगा। जो अज्ञानी है, बहिरात्मा है, वह लिंगजाति के विकल्प में फंसा रहता है और वह आत्मा के परम पद को प्राप्त नहीं कर
सकते।
__शरीर को अपना माननेवाला बहिरात्मा सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता और जागृत हो जाने पर भी शरीर से मुक्त नहीं होता। आत्मज्ञानी मनुष्य जो आत्मा को ही अपना मानता है, वह सुप्त और उन्मत्त (पागल) होने पर भी मुक्त हो जाता है।
अतः अपनी आत्मा से भिन्न अरहंत-सिद्धरूप आत्मा की उपासना करनेवाला उपासक स्वयं अरहंत-सिद्धरूप परमात्मा बन जाता है। जैसे-दीपक से ज्योति अलग है, पर ज्योति की उपासना करते-करते वह स्वयं ज्योतिर्मय बन जाती है।
अर्थात् आत्मा, आत्मा की ही उपासना कर परमात्मा बन जाता है। अतः सदा आत्मा की ही उपासना करना चाहिए। पर में अहं बुद्धि छोड़कर आत्मा में मन लगाना चाहिए। तभी जन्म-मरण के दुख दूर कर ज्योतिर्मय सुख (मोक्ष सुख) को प्राप्त कर सकते हैं। अत: समाधि ही सुख का मार्ग है।
जो श्रावक आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय बतलानेवाले इस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थ को जानकर एवं समझकर आत्मतत्त्व को प्राप्त करेगा, वह जन्म-मरण से मुक्त होकर अनन्तज्ञान एवं मोक्षसुख को प्राप्त करेगा।
192 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय