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परमात्मा
परमात्मा के स्वरूप को समझाते हुए कहते हैं कि जब तक प्राणी शरीर, वाणी
और मन इन तीनों को अपना मानता है, तब तक संसार है। जब आत्मा तीनों से भिन्न (अलग) हो जाता है तब परमात्मा बन जाता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। आत्मा शुद्ध और बुद्ध हो जाता है।
शरीर और आत्मा की भिन्नता को यहाँ बहुत अच्छा उदाहरण देकर समझाते
• जिस तरह वस्त्र भिन्न होते हैं और शरीर भिन्न होता है। वस्त्र मोटा, पतला, काला, सफेद, लाल और पीला कैसा भी हो, उसके जैसा शरीर नहीं होता। उसी तरह शरीर मोटा, पतला, गोरा और काला कैसा भी हो, उसके जैसा आत्मा नहीं होता है। ज्ञानी व्यक्ति स्वयं को शरीर नहीं मानता है।
• वस्त्र के फट जाने पर या खराब हो जाने पर ज्ञानी व्यक्ति स्वयं को फटा या खराब नहीं मानता है, उसी प्रकार वह शरीर के नष्ट हो जाने पर, बीमार हो जाने पर आत्मा को बीमार या नष्ट हो गया; ऐसा नहीं मानता है।
• ज्ञानी व्यक्ति शरीर से प्रेम नहीं करता है, क्योंकि शरीर ही सभी । परेशानियों की जड़ है। यदि शरीर से प्रेम नष्ट हो जाए तो धन, दौलत, दुकान, मकान और परिवार आदि के कारण जो दुख हैं, संकट और परेशानियाँ हैं सब नष्ट हो जाती हैं।
• ज्ञानी व्यक्ति लोगों की संगति से भी दूर रहता है, क्योंकि लोगों की संगति से वाणी की चंचलता होती है। जिससे मन की चंचलता भी बढ़ती है। अतः मन में शान्ति के लिए, ध्यान के लिए जन-संगति से दूर रहना चाहिए।
• आत्मज्ञानी के लिए गाँव या जंगल-ये दो स्थान होते हैं। वह कहीं भी रहे, पर वह आत्मा में ही रहता है। अतः हम कहीं भी रहें, पर आत्मा में रहें। तभी अच्छा होगा।
__ • आत्मा ही आत्मा का गुरु है, क्योंकि आत्मा ही आत्मा को जन्म या निर्वाण की ओर ले जाता है।
__ • आत्मज्ञानी मनुष्य शरीर के नाश हो जाने पर ऐसा समझता है कि एक वस्त्र को छोड़कर दूसरा वस्त्र धारण कर लिया हो।
परन्तु शरीर को ही अपना माननेवाला व्यक्ति मृत्यु को निकट जानकर या परिवार आदि के वियोग हो जाने पर भयभीत हो जाता है। दुखी हो जाता है, अतः
समाधितन्त्र :: 191