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________________ हुआ हूँ। परम आनन्द से परिपूर्ण हुआ हूँ। ज्ञानात्मा को प्राप्त हुआ हूँ। जो आत्मा को अविनाशी और शरीर से अलग नहीं जानता है, वह उत्कृष्ट तप भी कर ले तो उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता। मोक्ष-प्राप्ति के लिए उसे अपनी आत्मा के स्वरूप को समझना पड़ेगा। यहाँ आत्मा को जानने का बहुत अच्छा उपाय भी बतलाया है। जैसे-किसी बर्तन में पानी भरा हुआ है। वह हिल रहा है। उसमें हमें चेहरा दिखाई नहीं देता। लेकिन यदि पानी स्थिर और शान्त हो जाए तो हमें आसानी से चेहरा दिखाई देगा। उसी तरह हमें अपना आत्मा तब तक दिखाई नहीं देगा, जब तक हमारा चित्त राग-द्वेष रूपी लहरों से चंचल है। जब हमारा मन स्थिर हो जाएगा, शान्त हो जाएगा, तब हमें आत्म तत्त्व का दर्शन अवश्य हो जाएगा। __ जो बहिरात्मा है, जो शरीर को अपना मानता है, वह समझता है कि मेरा मान हुआ, मेरा सम्मान हुआ। पर जो आत्मा को जान लेता है, उसे मान-सम्मान की चिन्ता नहीं होती है। बहिरात्मा शरीर को ही अपना समझता है, इसलिए वह शरीर और दिव्य भोगों की आकांक्षा करता है। जबकि अन्तरात्मा तत्त्वज्ञानी पुरुष इनसे छुटकारा पाने की इच्छा करता है। बहिरात्मा यदि धर्म भी करता है, तो उसका धर्म स्वार्थपूर्ति के लिए होता है। इसलिए वह धर्म अच्छा नहीं माना जाता। वह स्वर्ग के सुखों की इच्छा, सुन्दर शरीर, वैभव और ऐश्वर्य की इच्छा करता है। उपर्युक्त सभी बातों को समझाकर आचार्य कहते हैं कि अब शरीर से मन को हटाकर आत्मज्ञान में लग जाओ। अधिक से अधिक समय आत्मा के ध्यान में लगाओ। वचन और शरीर को भी आत्मा से मुक्त कर दो। अर्थात् न कुछ बोलो, न कुछ करो। कुछ करना भी है, तो सिर्फ आत्मज्ञान और ध्यान के लिए ही करो। वही सोचो जिससे तुम्हारी आत्मा का हित हो। सिर्फ अपनी आत्मा में ही मन लगाओ। जब तुम आत्मज्ञान को समझ जाओ तो दूसरों को समझाने के चक्कर में भी मत लगो। दूसरों को मत समझाओ, अपना समय नष्ट नहीं करो। समझदार अपने आप समझ जाएगा। जो नासमझ है, उसे कभी, कोई भी नहीं समझा सकता है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का मूल सन्देश यही है कि मन को शान्त करो और आत्मा को जानो। ज्ञान को ज्ञान में लीन करो। तब बहिरात्मा अन्तरात्मा बनता है और अन्तरात्मा परमात्मा बन जाता है। 190 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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