SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तरात्मा अन्तरात्मा का स्वरूप समझाते हुए वे कहते हैं कि जो साधक इन बाह्य विषयों को छोड़कर अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करता है, वह अन्तरात्मा है। वह सोचता है कि मैं अनादिकाल से अपने आपको पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में फँसा रहा हूँ। पर वास्तव में, मैं न रोगी हूँ, न मेरी मृत्यु न मेरा जन्म है और न मेरी मृत्यु है । न स्त्री हूँ और न पुरुष हूँ। जो आत्मा में आत्मा का अनुभव करता है, वह मैं हूँ । • एक बहुत सुन्दर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जैसे-ठूंठ को पुरुष समझकर यदि कोई व्यक्ति उसे खाना खिलाए, कपड़े पहनाए, प्यार से रखे, उससे हँसकर बोले तो लोग उसे मूर्ख समझते हैं, क्योंकि यह सब व्यर्थ होता है। उसी प्रकार अन्तरात्मा सोचता है कि मैंने अपने शरीर के साथ जो भी क्रिया की है, उसे सजाया-सँवारा है, वह सब व्यर्थ है । • अन्तरात्मा सोचता है कि मैंने जब तक शरीर को अपना माना, तब तक मुझे शत्रु और मित्र दिखाई दिए; पर अब आत्मा को जानने के बाद यह जगत न मेरा शत्रु है और न मेरा मित्र है। इस प्रकार हमें बहिरात्मभाव को छोड़कर अपनी अन्तरात्मा में लीन होना चाहिए। जैसे - यदि हम रोबॉट को प्यार करें तो क्या वह हमें प्यार करेगा ? उसी प्रकार शरीर से प्यार करने में, अपना मानने में केवल दुख ही मिलता है। क्योंकि हम समझते हैं कि ये गाड़ी, पंखे, ए.सी., घर और परिवार हमें सुख दे रहे हैं, पर वास्तव में ये केवल शरीर को ही सुख दे रहे हैं। अब बाहर से ध्यान हटाओ । सारी इन्द्रियों को अपने आप में संयमित करो । अन्तरंग में अपने ज्ञान तत्त्व और ज्ञानधारा को जानो । अपने आपको आत्मा I • में लीन कर दो, यही आत्मा है । यही परमात्मा है। हरात्मा परिग्रह और अन्य पर पदार्थों के साथ बड़ी इच्छा और विश्वास के साथ जीवन जीता है, पर ये पदार्थ सबसे ज्यादा हानिकारक और दुखदायी सिद्ध होते हैं। जिनको यह अपना मानता है, जिनके पास रहता है, वे दुख के साधन हैं और जिनसे दूर भागता है, डरता है वे ही सबसे ज्यादा सुख देनेवाले हैं। इसलिए हमें बाह्य पदार्थों को छोड़कर अन्तरात्मा में मन लगाना चाहिए। अन्तरात्मा सोचता है कि जो परम आत्मा है वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही परम आत्मा है। इसलिए मेरी ही उपासना साधना मुझे ही करना है। क्योंकि बहुत मुश्किल से मैं अपने आपको इन्द्रिय-विषयों से दूर कर स्वयं में, आत्मा में स्थित समाधितन्त्र :: 189
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy